More
    35.1 C
    Delhi
    Friday, March 29, 2024
    More

      || आग उगल रहा सूरज ||

      आग उगल रहा सूरज

      आग उगल रहा सूरज,
      बढ़ रही है तपन भी,
      नौतपों के ताप के संग,
      बरस रही अगन भी ।

      हाय!पखेरू हैं पागल,
      छाँव की तलाश में,
      कहीं दिखे झरना,सोता,
      उड़ रहे हैं आस में,
      गाय बकरी को दिखे ना,
      हरे वन के सपने भी ।

      आग उगल रहा सूरज,
      बढ़ रही है तपन भी ।

      हिम जमी रहती थी जिस पर,
      पिघल रहे हैं शिखर,
      शनैः शनैः प्रकृति का,
      ओज रहा है बिखर,
      सागरों के तट के संग,
      हो रहा भूमिरक्षण भी ।

      आग उगल रहा सूरज,
      बढ़ रही है तपन भी ।

      हांफ रहे जीव सभी,
      दिखे कोई ठौर ना,
      खींचती अब तो सुवास,
      आम की भी बौर ना,
      लवण युक्त स्वेद बहे,
      तोड़ रही थकन भी ।

      आग उगल रहा सूरज,
      बढ़ रही है तपन भी ।

      क्षत विक्षित ओजोन छतरी,
      कौन उसका दुख हरे,
      चीर फाड़ सब करें पर,
      कोई ना मल्हम धरे,
      राष्ट्र छोटे बड़े इसका,
      करते चीर हरण भी ।

      आग उगल रहा सूरज,
      बढ़ रही तपन भी ।

      प्राण रक्षक पर्यावरण,
      से लगायें सब लगन,
      धुँए पर अंकुश लगाकर,
      स्वच्छ अंबर का जतन,
      स्वच्छ सरिताओं की रक्षा,
      में रहें सब मगन भी ।

      आग उगल रहा है सूरज,
      बढ़ रही है तपन भी ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

      READ MORE POETRY BY PRABHA JI CLICK HERE

      DOWNLOAD OUR APP CLICK HERE

      ALSO READ  || बजबजाती नालियाँ ||

      Related Articles

      LEAVE A REPLY

      Please enter your comment!
      Please enter your name here

      Stay Connected

      18,729FansLike
      80FollowersFollow
      718SubscribersSubscribe
      - Advertisement -

      Latest Articles