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      || आकाश से धरा पे ||

      आकाश से धरा पे

      आकाश से धरा पे यूँ बरस रही है चाँदनी,
      आंखों से होकर हृदय तक सरस रही है चाँदनी ।

      कलिका के अधरों पर,
      छिटक रही मुस्कान है,
      इस अलौकिक दृश्य का,
      कली को कहां भान है,
      धीरे-धीरे चल रही,
      सरल सफल सी प्रक्रिया,
      प्रातः पूर्व निपटाना,
      निरंतर अभियान है ।

      अपने अद्दभुत कृत्य पर हरस रही है चाँदनी,
      आकाश से धरा पे यूँ बरस रही है चाँदनी ।

      शूल जैसी गड़ रही,
      प्रेमियों के हृदय पर,
      आंख से अश्रु झरे हैं,
      सिसकी भरे हैं अधर,
      पीर से व्याकुल हृदय,
      छटपटाये मीन सा,
      दृष्टि धुंध का अनुभव,
      डगमगाई सी डगर ।

      पीर,अश्रु सिसकियां परस रही है चाँदनी,
      आकाश से धरा पे यूँ बरस रही है चाँदनी ।

      कृषक करता काम जो,
      खेत में सुबह व शाम,
      मजदूर स्वेद सींचता,
      करे काम,मात्र काम,
      निस्वार्थ देश प्रेम हित,
      रखे हथेली पे प्राण,
      गुफाओं,कंदराओं में,
      ऋषि जो भज रहे राम ।

      उनके चरण स्पर्श को तरस रही है चाँदनी,
      आकाश से धरा पे यूँ बरस रही है चाँदनी ।

      हृदय से जो कर रहे,
      ज्ञान,ध्यान,साधना,
      अच्छाइयों के हित जिन्हें,
      प्रिय हैं स्वार्थ त्यागना,
      समाज सेवा के लिए,
      प्रिय जिन्हें कुर्बानियाँ,
      साहस युक्त मांझी का,
      हो भंवर से सामना ।

      अध्ययनरत कवि श्रेष्ठ को नवरस रही है चाँदनी,
      आकाश से धरा पे यूँ बरस रही है चाँदनी ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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