असहिष्णुता
शब्द असहिष्णुता अब खुद पर इतराने लगा है.
कयों न हो अब हर महफिल मे इसका जिक्र आने जो लगा है.
वो जिन्हें अब असहिष्णुता की लाठी पकड चलने में मजा आने लगा है.
भला हो इनका इनकी वजह से ही ज्यादा अब ये शब्द जाना जाने लगा है.
यू तो आज भी खुशबू आती है मेरे चमन से मुख्तलिफ़ फूलों की,
पर अब एक फूल दूसरे फूलों पर इझ जाम लगाने लगा है,
वो जिन्हें छू नहीं सकती गरम हवाऐं बिना उनकी मरजी के.
अब उन्हें भी पुरवाई से डर सताने लगा है.
ये बात और है कि बदला नहीं मिज़ाज मेरे शहर का अभी.
पर फिर भी असहिष्णु मेरा शहर कहलाने लगा है.
कब तलक चलाओगे इसके सहारे कारोबार अपना
आवाम को भी अब समझ आने लगा है,
अब तो सह लो कातिलों का गुणगान
विरोध कातिलों का अब असहिष्णुता कहलाने लगा है.
जहाँ हम पूजते थे कल तलक वतन के पहरेदारो को
आज उन पर भी इलज़ाम आने लगा है.
हो सके तो बंद करो इन जुबानों को
तुम्हारे इरादों पे अब शक आने लगा है।
लेखक
प्रदीप कुमार दिवाकर
“LAMHE”
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