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      || बरसें बुंदियां सावन की ||

      बरसें बुंदियां सावन की

      बरसें बुंदियां सावन की,सावन की मनभावन की,
      चमक दमकती गरज बांकुरी बिजुरी चमक दिखावन की ।

      बागों में हरियाली बन्नो,
      मंद मंद मुस्कावत है,
      मोती बन बन कर बुंदियां भी,
      अधिकै रूप बढ़ावत हैं,
      पत्तों पर टप तप करके बे,
      धुले धुले फूलन पर बुंदियां,
      मणि मणिक चमकावत हैं ।

      हँसत हँसत सब स्वागत करते नव यौवन के आवन की,
      बरसें बुंदियां सावन की,सावन की मनभावन की ।

      काहे न हरषायें कृषक जी,
      भरा है जल सब खेतन में,
      पनवारी भी धरे है धीरज,
      दिखेंगे पान बरेजन में,
      मजदूरी को सहर न जैहें,
      ना जैहें बे ठेकन में,
      दाम मिलेंगे बेचन से जब
      सोना उपजे खेतन में ।

      खावन को अनाज व कपड़ा जुगत हो शीत बचावन की,
      बरसें बुंदियां सावन की,सावन की मनभावन की ।

      धुली धुली सी गलियां दीखें,
      भरे से पोखर ताल हैं,
      इंद्रधनुष सतरंगी न्यारा,
      सजा गगन के भाल है ।
      नदियां सरर सरर उफान पर,
      लहराती सी चाल है,
      जल है तो जीवन है अपना,
      रोटी,चावल,दाल है ।

      मेहनत कर सब मिल जावे तब रहे ना चिंता खावन की,
      बरसें बुंदियां सावन की सावन की मनभावन की ।

      बिरहन के जियरा पर बुंदियां,
      सीधी आग लगावत हैं,
      जग को चाहे जितनी भावें,
      उन्हें ज़रा न भावत हैं,
      अंतरंग छिन संग प्रीतम के,
      अखियन आगे लावत हैं,
      ऊपर से बैरन बिजुरी भी,
      गरज गरज धमकावत हैं ।

      बांवरी सी डोले बेसुध न सुध खावन न्हावन की,
      बरसें बुंदियां सावन की,सावन की मनभावन की ।

      यों देखो तो जन जनके मन,
      बुंदियां बहुतै भावत है,
      तीज त्यौहार की खेप लीये,
      बुंदियां धरती पर आवत हैं,
      टप टप मधुर आवाज में,
      मीठा राग सुनावत है,
      उपजाऊ धरती को करतीं,
      जग की प्यास बुझावत हैं ।

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      प्राण प्रिया सी लगती बुंदियां झूलत झूलत गावन की,
      बरसें बुंदियां सावन की,सावन की मनभावन की ।

      ना बरसें बुंदियां तो जग में,
      त्राहि त्राहि हो जावेगी,
      दाने दाने को तरसें सब,
      भूख पेट को खावेगी,
      पीवन को पानी ना मिलहै,
      बूंद बूंद तरसावेंगी,
      लूटपाट मच जावेगी तब,
      मानवता घुट जावेगी ।

      हाथ जोड़ सब बिनती करते बरसें बुंदियां सावन की,
      बरसे बुंदियां सावन की,सावन की मनभावन की ।

      कागज की कश्ती से खेलें,
      बच्चे बरखा रानी में,
      गीला कुरता नवयुवती का,
      आग लगाये पानी में,
      बूढ़ों की भी आंखें चमकें,
      किये थे खेल जवानी में,
      पति पत्नी संग करे ठिठोली,
      बैठे घर की छानी में,

      अलग-अलग सबको हरषाये ऋतु जियरा हरसावन की,
      बरसें बुंदियां सावन की,सावन की मनभावन की ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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