बेटी सयानी
मारे है मंहगाई इधर और उधर बेटी सयानी,
हो न हो धन फिर भी सबको रीत पड़ती है निभानी ।
बाकी सारे रोने-धोने एक तरफ रख भी दें तो भी,
रीत लगुन फलदान सरीखी में माँगें है ‘लाख जुबानी’ ।
द्वारचार,दूध भाती जैसे नेग सभी तो रहे अलग से,
पग-पग लगे पिता को ज्यूँ पड़ जाये न ऐम्बुलेंस बुलानी ।
कन्यादान के वक्त कहाँ कुछ कम लुटता है बेटी वाला,
कर्ज के भँवर में सीधे ही पहुँचाता है दो लोटा पानी ।
अलग से हर बराती को भी देना पड़ता है उपहार,
वो भी कहीं हुआ छोटा तो बन जाती घर-घर की कहानी ।
हर रिवाज यदि हँसते-हँसते पूरा हो जाये तो भी तो,
लाख न चाहे छलक ही आता है सबकी आँखों में पानी ।
और अंत में भगवान से कुछ ऐसी दुआ अवश्य माँगते,
रहे जहाँ भी रहे सदा खुश दुआ हमारी ले जा जानी ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
FOR MORE POETRY FROM PRABHA PANDEY JI VISIT माँ में तेरी सोनचिरैया