धरती के भीतर जाने दो
धरती के भीतर जाने दो,पानी का कुछ अंश,
हम ना चेते तो पछतायेंगे अपने ही वंश ।
कांक्रीट के जंगल हैं फैले पानी करे गुहार,
धीरे-धीरे खत्म हो रहा है जल का भण्डार,
अपने ही हाथों ना कर लें हम अपना विध्वंस,
धरती के भीतर जाने दो पानी का कुछ अंश ।
बीस हाथ पे कुएं का जल था,जो है सौ के पार,
बीस बरस का है ये अन्तर, हुए न बरस हजार,
कौवे की तो बात अलग,अब नहीं बचेंगे हंस,
धरती के भीतर जाने दो पानी का कुछ अंश ।
जल रक्षा के करने होंगे प्रयत्न हमें चहुँ ओर,
अधिकारों से मत बांधो अब कर्त्तव्यों की डोर,
नहीं तो तरसे बूँद-बूँद को लू मारेगी दंश,
धरती के भीतर जाने दो पानी का कुछ अंश ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
READ MORE POETRY BY PRABHA JI CLICK HERE
DOWNLOAD OUR APP CLICK HERE