More
    31.1 C
    Delhi
    Wednesday, April 24, 2024
    More

      छोटा न समझें किसी भी काम को | RRD | 2YoDo विशेष

      नमस्कार मित्रों,

      एक बार भगवान अपने एक निर्धन भक्त से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करने उसके घर साधु के वेश में पधारे। उनका यह भक्त जाति से चर्मकार था और निर्धन होने के बाद भी बहुत दयालु और दानी प्रवृत्ति का था।

      वह जब भी किसी साधु-संत को नंगे पाँव देखता तो अपने द्वारा गाँठी गई जूतियाँ या चप्पलें बिना दाम लिए उन्हें पहना देता।

      जब कभी भी वह किसी असहाय या भिखारी को देखता तो घर में जो कुछ मिलता, उसे दान कर देता।

      उसके इस आचरण की वजह से घर में अकसर फाका पड़ता था।

      उसकी इन्हीं आदतों से परेशान होकर उसके माँ-बाप ने उसकी शादी करके उसे अलग कर दिया, ताकि वह गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को समझे और अपनी आदतें सुधारे।

      लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह पहले की ही तरह लोगों की सेवा करता रहा।

      भक्त की पत्नी भी उसे पूरा सहयोग देती थी।

      ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर ही भगवान उसके घर आए थे, ताकि वे उसे कुछ देकर उसकी निर्धनता दूर कर दें तथा भक्त और अधिक ज़रूरतमंदों की सेवा कर सके।

      भक्त ने द्वार पर साधु को आया देख अपने सामथ्र्य के अनुसार उनका स्वागत सत्कार किया।

      वापस जाते समय साधू भक्त को पारस पत्थर देते हुए बोले :

      इसकी सहायता से तुम्हें अथाह धन संपत्ति मिल जायेगी और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। तुम इसे सँभालकर रखना।

      इस पर भक्त बोला :

      फिर तो आप यह पत्थर मुझे न दें। यह मेरे किसी काम का नहीं। वैसे भी मुझे कोई कष्ट नहीं है। जूतियाँ गाँठकर मिलने वाले धन से मेरा काम चल जाता है। मेरे पास राम नाम की संपत्ति भी है, जिसके खोने का भी डर नहीं।

      यह सुनकर साधु वेशधारी भगवान लौट गए।

      ALSO READ  || हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक साथ थे ||

      इसके बाद भक्त की सहायता करने की कोई कोशिशों में असफल रहने पर भगवान एक दिन उसके सपने में आए और बोले :

      प्रिय भक्त! हमें पता है कि तुम लोभी नहीं हो। तुम कर्म में विश्वास करते हो। जब तुम अपना कर्म कर रहे हो तो हमें भी अपना कर्म करने दो। इसलिए जो कुछ हम दें, उसे सहर्ष स्वीकार करो।

      भक्त ने ईश्वर की बात मान ली और उनके द्वारा की गई सहायता और उनकी आज्ञा से एक मंदिर बनवाया और वहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा।

      एक चर्मकार द्वारा भगवान की पूजा सहन नहीं हुआ और राजा से इसकी शिकायत कर दी।

      राजा ने भक्त को बुलाकर जब उससे पूछा तो वह बोला :

      मुझे तो स्वयं भगवान ने ऐसा करने को कहा था। वैसे भी भगवान को भक्ति प्यारी होती है, जाति नहीं। उनकी नज़र में कोई छोटा-बड़ा नहीं, सब बराबर हैं।

      राजा बोला :

      क्या तुम यह साबित करके दिखा सकते हो?

      भक्त बोला :

      क्यों नहीं। मेरे मंदिर में विराजित भगवान की मूर्ति उठकर जिस किसी के भी समीप आ जाए, वही सच्चे अर्थों में उनकी पूजा का अधिकारी है।

      राजा तैयार हो गया।

      पहले सब ने प्रयास किए लेकिन मूर्ति उनमें से किसी के पास नहीं आई।

      जब भक्त की बारी आई तो उसने एक पद पढ़ा :

      “देवाधिदेव आयो तुम शरना, कृपा कीजिए जान अपना जना।’

      इस पद के पूरा होते ही मूर्ति भक्त की गोद में आ गई।

      यह देख सभी को आश्चर्य हुआ।

      राजा और रानी ने उसे तुरंत अपना गुरु बना लिया।

      ALSO READ  कुछ भी करने से पहले ज़रूर चेक करें काल से संबंधित जानकारी | 2YoDo विशेष

      इस भक्त का नाम था रविदास

      जी हाँ, वही जिन्हें हम संत रविदास जी या संत रैदास जी के नाम से भी जानते हैं।

      जिनकी महिमा सुनकर संत पीपा जी, श्री गुरुनानकदेव जी, श्री कबीर साहिब जी, और मीरांबाई जी भी उनसे मिलने गए थे।

      यहाँ तक कि दिल्ली का शासक सिकंदर लोदी भी उनसे मिलने आया था।

      उनके द्वारा रचित पदों में से 39 को “श्री गुरुग्रन्थ साहिब‘ में भी शामिल किया गया है।

      लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन सबके बाद भी संत रविदास जीवन भर चमड़ा कमाने और जूते गाँठने का काम करते रहे, क्योंकि वे किसी भी काम को छोटा नहीं मानते थे।

      जिस काम से किसी के परिवार का भरण-पोषण होता हो,वह छोटा कैसे हो सकता है..!!

      लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद मित्रों.

      Related Articles

      LEAVE A REPLY

      Please enter your comment!
      Please enter your name here

      Stay Connected

      18,752FansLike
      80FollowersFollow
      720SubscribersSubscribe
      - Advertisement -

      Latest Articles