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      || हमारी ही नादानी है ||

      हमारी ही नादानी है

      स्वप्न में ही अब तो श्रृंखलाएं सुहानी हैं,
      गुफा,कन्दराएँ,झरने बचे निशानी हैं ।

      इन्सान काट काट सभी कर रहा है समतल,
      पर्वत बचे न वन,कहाँ झरनों में पानी है ।

      नष्ट कर रहे हैं लोग प्रकृति को यथाशक्ति,
      प्रकृति को भी हम पर दया फिर क्यूं आनी है ।

      बढ़ रहा तापमान पृथ्वी का जिस तेजी से,
      कहीं भूकंप के झटके कहीं बाढ़ आई है ।

      प्रकृति तांडव दिखाये है, दोष भला किसका?
      भूल हमारी है, हमारी ही नादानी है ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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