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      || हमसे नहीं सम्भलता माँ | HUMSE NAHI SAMBHALTA MAA ||

      हमसे नहीं सम्भलता माँ

      भीतर-भीतर गम खाते हैं आँसू नहीं निकलता माँ,
      ये तेरा लम्बा-चौड़ा घर हमसे नहीं सम्भलता माँ ।

      गाँव की खेतीबाड़ी तो अधिया पर ही दे आओ,
      देखभाल पुश्तैनी घर की रधिया को ही दे आओ ।
      रोटी सब्जी ठीक बने तो पक्का दूध उबलता माँ,
      ये तेरा लंबा-चौड़ा घर हमसे नहीं सम्भलता माँ ।

      बिजली का बिल भर देते तो टेलीफोन का रह जाता,
      और बढ़ाओ वेतन,नौकर ना आने को कह जाता ।
      बर्तन वाली,सब्जी वाला हर कोई है छलता माँ,
      ये तेरा लंबा-चौड़ा घर हमसे नहीं सम्भलता माँ ।

      बच्चे हर दिन रोते आते शाला लेट पहुँचते हैं,
      बाद अलारम के भी हम निश्चित विलम्ब से उठते हैं ।
      कौन कहानी उन्हें सुनाये, बच्चों को भी खलता माँ,
      ये तेरा लंबा-चौड़ा घर हमसे नहीं सम्भलता माँ ।

      रजनीगंधा सूख गई, तुलसी भी तेरी मुरझाई,
      चटनी और आचार मुरब्बों की तो सुध ही ना आई ।
      समझ गये हम बड़े सयानों बिन घरबार न चलता माँ,
      ये तेरा लंबा-चौड़ा घर हमसे नहीं सम्भलता माँ ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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