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      || जल रहा है सूरज ||

      जल रहा है सूरज

      जल रहा है सूरज और बढ़ रही है तपन,
      कण-कण के अंग जैसे लग रही अगन ।

      पंछी परिंदे भाग रहे प्यास से यहां वहां,
      पानी पर दिखता नही जायें तो जायें कहां,
      झुलस रहा तन बदन बढ़ रही है चुभन,
      जल रहा है सूरज और बढ़ रही है तपन ।

      दिखती नहीं है छाया थके-थके राही को,
      उलट पलट देखते हैं मटका,सुराही को,
      झर झर करते जल स्त्रोतों के अब दिखें ना सपन,
      जल रहा है सूरज और बढ़ रही है तपन ।

      लू से भरे तीर सा हवा में है एहसास,
      ए. सी.पंखे व कूलर,आदि कुछ करें ना खास,
      उगलते हु4 शोलों में भर चुकी है जलन,
      आग उगल रहा है सूरज और बढ़ रही है तपन ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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