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      || आशु-वाणी | जंगलीपन ||

      जंगलीपन

      जैसे-जैसे आदमी जंगलों को निगल रहा है,
      वैसे-वैसे जंगलीपन उगल रहा है।
      जंगली जानवर अपने आप को,
      आदमियत से बचाते बचाते मर रहा है।
      और, आदमी अब खुद जंगली बनकर,
      जंगली जानवरों की भरपाई कर रहा है।

      लेखक
      श्री विनय शंकर दीक्षित
      “आशु”

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