|| ज्यों ही एक छोटे से | JYUN HI EK CHOTE SE ||
ज्यों ही एक छोटे से
ज्यों ही एक छोटे से स्टेशन से मेरी गाड़ी चली,
मुझको डिब्बे में दिखी मासूम सी हसीन कली ।
हाथ में पकड़े थी पुड़े और गले में पोटली,
गरम, गरम, नरम,नरम बेच रही मूंगफली ।।
कोई उसे छेड़ता और कोई कसे फब्तियाँ,
पर वो सबसे बेखबर सी आगे आगे बढ़ चली ।
पढ़ने लिखने की थी उम्र,चेहरे पे नादानियाँ,
आग पेट की बुझाने बोझ कांधे धर चली ।।
माता पिता मर गये गुजरात के भूकम्प में,
छोटे भाई और उस पर भर वो आरी न चली ।
कैंप में थी भेड़ियों की खाये जाती थी नजर,
छोड़ आई कैंप अब वो खुद ही पेट भर चली ।।
वैसे तो इस काम में भी कम नहीं सहना पड़े,
फिर भी लगातार एक सी नजर से हट चली ।
रेल में मुसाफिरों की भीड़ रहती हर समय,
उसके वास्ते यही बेहतर लगा सो कर चली ।।
सोचती ही रह गई उसकी लाचारी की कथा,
और कलम मेरी स्याही में भी आँसू भर चली ।
ये यहाँ महफूज रह पायेगी आखिर कब तलक,
जब तलक नजरे-इनायत हो खुदा उस पर बली ।।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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