कांक्रीट के जंगल
बढ़ रहे हैं हर तरफ कांक्रीट के जंगल,
घुस नहीं पायेगा जल तो होगा अमंगल ।
गिर रहा है दिन पे दिन जमीन का जल स्तर,
गर्मी और तपन के बढ़ते जाते हैं नश्तर ।
नदियों के जल के लिये भी हो रहा दंगल,
बढ़ रहे हैं हर तरफ कांक्रीट के जंगल ।
काट-काट वन बनी है अब कालोनियाँ,
खेती की जमीन पर तनी बरौनियाँ ।
पर्यावरण का चीरहरण हो रहा हर पल,
बढ़ रहे हैं हर तरफ कांक्रीट के जंगल ।
कोई बिल्डिंग छोटी कोई है आकाश तक,
हो नहीं पाता है सूर्य का आभास तक ।
एयर कंडीशनर से ठंडा करते हैं हर तल,
बढ़ रहे हैं हर तरफ कांक्रीट के जंगल ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
READ MORE POETRY BY PRABHA JI CLICK HERE
DOWNLOAD OUR APP CLICK HERE