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      || खाकी का दर्द ||

      नमस्कार मित्रों,

      हमारे पुलिस कर्मियों का भी शौर्य और बलिदान का पुराना इतिहास है।

      21 अक्टूबर 1959 को चीन से लगी भारत की सरहदों की रक्षा करते हुए हमारे देश के केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 10 पुलिसकर्मियों ने सर्वोच्च बलिदान दिया था।

      उन्हें पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने कायरतापूर्ण हमले में मारा था और उनका शव चीनी सैनिकों ने 13 नवम्बर 1959 को लौटाया था।

      तब हॉट स्प्रिंग्स में पूरे पुलिस सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया।

      जनवरी 1960 में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पुलिस महानिरीक्षकों की वार्षिक बैठक में लिए गए निर्णय के बाद से “साल के दौरान ड्यूटी पर जान गंवाने वाले और लद्दाख में शहीद हुए वीर पुलिसकर्मियों के बलिदान के सम्मान में हर वर्ष 21 अक्टूबर को नेशनल पुलिस ड़े मनाया जाता है जिसे हिंदी में या पुलिस स्मृति दिवस भी कहते हैं।

      पुलिस का नाम सुनते ही आन-बान और शान का प्रतीक मानी जाने वाली खाकी वर्दी पहने, हाथ में डंडा लिए पुलिसकर्मी की रोबीली तस्वीर उभरकर सामने आ जाती है लेकिन यदि इस रोबीली आवाज़ के पीछे की तस्वीर का दूसरा पहलू देखें, तो उसके पीछे छिपे हुए दर्द को बयां करने के लिए शब्दकोश के शब्द शायद कम पड़ जाएं।

      पुलिस स्मृति दिवस पुलिसकर्मियों के लिए यह दिन सबसे अहम दिन माना जाता है।

      इस दिन शहीद पुलिसकर्मियों को याद किया जाता है।

      लेकिन लोगों की सुरक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहने वाले पुलिस विभाग के पुलिसकर्मी मानसिक तनाव व अपराधियों के बीच रहते हुए भी बड़े ही संघर्ष के दौर से गुजरते हुए ड्यूटी करते हैं।

      जनता की सुरक्षा करते पुलिसकर्मी खुद कितने सुरक्षित?

      कड़कड़ाती हुई ठंड हो, गर्मी, बरसात या फिर आंधी तूफान! कानून, फर्ज़ व ईमान की बेड़ियों में जकड़े पुलिसकर्मी, जो खतरों से जूझते हुए वीआईपी से लेकर आम नागरिकों की सुरक्षा में मुस्तेदी से तत्पर नज़र आते हैं।

      वे ही पुलिस के जवान खुद कितने ही खतरों पर खेलकर, अपनी जान की भी परवाह ना करते हुए, असामाजिक तत्वों से राष्ट्रीय व निजी संपत्तियों की चौबीस घंटे 365 दिन सुरक्षा करते हैं, तब कहीं जाकर हम अपने देश में आज़ादी से सांस लेते हुए चैन से सो पाते हैं।

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      यदि एक दिन भी पुलिस अपना कार्य करना बंद कर दे, तब चारों तरफ ट्रैफिक जाम की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी, आपराधिक प्रवृत्ति के लोग बहन-बेटियों, माताओं और बुज़ुर्गों की खुलेआम बेइज़्ज़ती करते नज़र आएंगे।

      यदि वे काम ना करें, तब हम अपने घर में भी स्वयं को असुरक्षित महसूस करेंगे।

      अपराध का ग्राफ और अपराधियों के हौसले दोनों ही बुलंद हो जाएंगे।

      क्यों आक्रमक हो जाते हैं पुलिसकर्मी?

      अब सोचने वाली बात यह है कि जब नियमानुसार हर पांच साल बाद जनता द्वारा चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों का भी लक्ष्य सुरक्षा और कानून व्यवस्था बहाल रखते हुए जनता की सेवा करना है, तो अपनी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए विश्व में विशिष्ट पहचान रखने वाली पुलिस के प्रति ऐसे समय में आखिर लोगों का नज़रिया क्यों बदल जाता है?

      यही नहीं, अक्सर शांत स्वभाव के दिखाई देने वाले पुलिसकर्मी भी इतने आक्रामक क्यों हो जाते हैं?

      निजी समस्या

      जनपद में कर्फ्यू का माहौल हो या किसी वीआईपी की सुरक्षा का मामला, मेले का आयोजन या फिर प्रतिदिन विभिन्न क्षेत्रों में लगने वाली दिन-रात की गश्त हो, अथवा ड्यूटी! लगभग सभी स्थानों पर मूलभूत सुविधाओं के अभाव में शुद्ध पेयजल, टॉयलेट व गश्त के दौरान मार्ग में बिजली आदि जैसी समस्याओं से दो-चार होना ज़्यादातर पुलिसकर्मियों के लिए अब आम बात हो चुकी है।

      ड्यूटी के दौरान सबसे ज़्यादा परेशानियों का सामना उन महिलाओं को करना पड़ता है, जो कुछ महीनों पहले ही माँ बनी हों।

      ऐसी महिलाओं में भी ड्यूटी पर जाने वाली उन महिलाओं की ड्यूटी और कठिन है, जिनकी स्वयं की तैनाती व पति की सर्विस अपने परिवार से दूर अन्य जनपदों में हैं।

      पूरी तरह से आश्रित होने के कारण छोटा सा अबोध बच्चा अपनी माँ के पास है और तमाम कोशिशों के बाद भी उसका तबादला गृह जनपद या उसके आसपास मंज़ूर नहीं हो पा रहा है।

      छोटे बच्चों की देखरेख के लिए आसपास के क्षेत्र में कहीं भी ‘क्रेच’ की व्यवस्था नहीं है, जहां वे अपने नन्हे बाल गोपाल को छोड़कर ड्यूटी के लिए जा सकें।

      राजनीतिक दबाव

      राजनीतिक प्रेशर के कारण आये दिन पुलिस वालों को आम जनता के क्रोध, अभद्रता व अपशब्दों के साथ-साथ ही गम्भीर आरोपों का भी सामना करना पड़ता है।

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      ड्यूटी के दौरान शायद ही कोई ऐसा पुलिसकर्मी बचा हो, जिसे मोटा, गैंडा, ठुल्लू आदि अलंकारों से विभूषित न किया गया हो।

      पुलिस की वर्दी पहनने के बाद किसी भी पुलिसकर्मी का शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो, जब उसे आम आदमी, मीडिया व उच्चाधिकारियों से लेकर छुटभैया या कद्दावर नेताओं द्वारा खरी-खोटी सुनाते हुए ज़लील ना किया जाता हो।

      इतना सब कुछ होने के बाद भी पुलिस धैर्य बनाये रखती है, जिसकी वजह से वे हमेशा मानसिक तनाव में रहते हैं और कभी-कभी तनावग्रस्त होने के कारण पुलिसकर्मी अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और स्थिति विस्फोटक हो जाती है।

      इतना सब कुछ सहने के बाद भी अपने फर्ज़ व ड्यूटी को ज़िम्मेदारी के साथ अंजाम देने का प्रयास करने वाले ऐसे वतन के रखवाले सिपाहियों को हम सलाम करते हैं।

      अवकाश ना मिलना

      पुलिस विभाग के किसी भी सिपाही की बिना किसी अवकाश के ड्यूटी कम-से-कम 12 घंटे व सैलरी अन्य सरकारी विभागों में कार्यरत कर्मचारियों जितनी ही होती है।

      लेकिन बात करें निर्धारित की गई छुट्टियों की तो 52 रविवार, 12 द्वितीय शनिवार तथा 36 सरकारी छुट्टियां यानि कि कुल मिलाकर लगभग 100 दिन का अवकाश अन्य विभागीय कर्मचारियों की तरह पुलिस कर्मियों के नसीब में नहीं होता है।

      कभी-कभी कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए नियमानुसार प्रार्थना पत्र देकर मांगी गई छुट्टियां भी निरस्त कर दी जाती हैं, जिसकी वजह से हमेशा पुलिस कर्मियों में मानसिक तनाव की स्थिति बनी रहती है।

      दिहाड़ी मज़दूरों से भी ज़्यादा बदत्तर स्थिति

      विभिन्न श्रम एक्ट और फैक्ट्रीज़ एक्ट 1947 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति से पूरे सप्ताह में 48 घंटे और एक दिन में 9 घंटे से ज़्यादा काम नहीं करवाया जा सकता है।

      वहीं, पुलिसकर्मी एक दिन में कम-से-कम 12 और सप्ताह में लगभग 84 घंटे कार्य करते हैं और यदि क्षेत्र में कहीं भी दंगा फसाद हो जाए, फिर ड्यूटी कब खत्म होगी?

      इसका कुछ पता नहीं।

      सरकार के नियम और हेडक्वार्टर के दिशा निर्देशानुसार पुलिस विभाग के किसी भी अधिकारी या आरक्षी का कहीं भी और कभी भी ट्रांसफर किया जा सकता है।

      पुलिस हेडक्वार्टर से अचानक मिलने वाले सरकारी आदेश के बाद संबंधित अन्य जनपद के थाना क्षेत्र में तत्काल अपनी ड्यूटी जॉइन करने के लिए जाना होता है।

      वे पुलिसकर्मी अपने माता पिता, जीवन साथी, बच्चों व घर-परिवार से दूर, अनजाने शहर व गाँव में आवश्यकतानुसार आवास ना मिल पाने की वजह से कई-कई दिनों तक अकेले रहते हैं, जिस कारण उन्हें बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

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      सभी को तत्काल सरकारी आवास उपलब्ध कराना विभाग के लिए संभव नहीं हो पाता है और सख्त रवैये के कारण आम आदमी भी पुलिस से खौफ खाता है और अधिक किराया मिलने पर भी मकान देने से डरता है।

      खाकी पर भ्रष्टाचार का बदनुमा दाग

      लोकतांत्रिक देश में कानून व्यवस्था चाक-चौबंद बनाए रखने के लिए ज़िम्मेदार पुलिस पर हमेशा सफेद पोश दिखाई देने वाले जनप्रतिनिधियों, नियम कानून, सिस्टम और सिफारिशों का पूरा दबाव बना रहता है, जिसे अनदेखा करने पर पुलिस कर्मियों को भारी कीमत चुकानी पड़ती है।

      कभी-कभी जान से भी हाथ धोना पड़ता है, जिसके कारण स्वतंत्र रूप से और पूरी ईमानदारी के साथ कार्य कर पाना खाकी धारियों के लिए संभव नहीं हो पाता है।

      ज़्यादातर ईमानदार पुलिस कर्मियों को निर्धारित समय से पहले ही, ए दिन ट्रांसफर प्रक्रिया के दौर से गुज़रना पड़ता है।

      खाकी वर्दी को दागदार और बदनाम करने वाले कोई और नहीं, बल्कि राजनीतिक संरक्षण प्राप्त सभ्य समाज के कुछ स्वार्थी तत्व होते हैं, जो निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं।

      इतना सब कुछ समझने के बाद अब, यह कहना गलत नहीं होगा कि सिस्टम और राजनीतिक प्रेशर के कारण ही खाकी हमेशा जनता के निशाने पर रहती है, जिसका जीता-जागता एक उदाहरण दिसम्बर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर शुरू हुई हिंसक प्रदर्शन के दौरान पूरे भारतवर्ष में दिखाई दिया।

      जहां, सिर्फ खाकी को ही चुन-चुनकर निशाना बनाया गया, जिसमें कानून व्यवस्था बनाए रखने के प्रयास में बहुत से पुलिसकर्मी घायल हुए और कई बेमौत मारे भी गए।

      वहीं, वैश्विक महामारी कोविड-19 के दौरान भी अपने प्राणों की परवाह ना करते हुए पुलिस कर्मियों ने अहम भूमिका निभाई, जो कोरोना वॉरियर्स के रूप में आज भी स्मरणीय हैं।

      हम खाकी के सर्वोच्च बलिदान और त्याग को सलाम करते हैं।

      लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद मित्रों.

      2YoDoINDIA News & Media

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