किसी काम से
किसी काम से गई मैं विकलांग भवन में,
मुझे लगा मैं आ गई आधे से चमन में ।
बच्चे थे वहाँ अंधे,गूंगे और कई बहरे,
दो चार कम दिमाग भी थे,हम जहाँ ठहरे ।
उनकी वहाँ अलग ही दुनिया सी बसी थी,
सब एक ही जैसे थे सबमें थोड़ी कमी थी ।
गूंगे बहरे बात कर रहे थे इशारों से,
आदान ,प्रदान हो रहा था उद्गगारों से ।
उठे हुए से शब्दों की उनकी किताब थी,
अन्धों की क्लास दे रही खुद ही जवाब थी ।
मशीन से थीं सी रही कुछ पोलियो ग्रस्त थीं,
वो बालिकाएँ पर कहाँ जीवन से त्रस्त थीं ।
दरी बना रहे कई लड़के दिखे वहाँ,
टेढ़े थे हाथ पाँव इसका होश था कहाँ ।
दिल के सुरों में बाँधते गीतों में थमा था,
संगीत क्लास का समय संगीतों में रमा था,
गाने में उनके एक सुरीली सी कसक थी,
मन और भाव में भी पवित्रता की झलक थी,
थोड़े बना रहे थे वहाँ कुर्सी और टेबिल,
थोड़े लगा रहे,बने सामान पर लेबल ।
आपस में दिख रहा था प्रेम हृदय का सच्चा,
सन्तुष्ट दिख रहा था वहाँ हर विकलांग बच्चा ।
हीन भाव नहीं थी एक से थे सब,
सच्चे ईमानदार बहुत नेक से थे सब ।
मुझे लगा मैं उन्हें मात्र देखती रहूँ,
श्रम स्नेह के हवन से आँखें सकती रहूँ ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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