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      || मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली ||

      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली

      यूँ तो किस्से लगन के मिले हैं कई,
      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली,
      अपने कान्हा से मिलने की चाह में,
      मीरा जंगल से मरुथल भटकती मिली,

      पाँव कोमल और आँख बोझिल भी थी,
      मीरा भक्तों की टोली में शामिल भी थी,
      फिर भी बढ़ती गई नहीं थकती मिली,
      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली ।

      लोग जी भर के लाँछन मढ़ते गये,
      और जुल्मों-सितम उसपे बढ़ते गये,
      रंग कान्हा के हर सांस रचती मिली,
      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली ।

      उसका महलों दुमहलों से क्या वास्ता,
      चुन लिया जिसने निर्वाण का रास्ता,
      छोड़ हीरे वो तुलसी से सजती मिली,
      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली ।

      राणा ने उसको प्याला जहर का दिया,
      पी गई वो तो जैसे हो अमृत पिया,
      दिन-ब-दिन उसमें बढ़ती विरक्ति मिली,
      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली ।

      हँस के झेली जहाँ की सभी रंजिशें,
      हो गई व्यर्थ जग की सभी कोशिशें,
      मीरा दुनिया के रिश्तों से भगती मिली,
      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली ।

      जोगी परिधान थे मन में भगवान थे,
      जा रही थी किधर लोग अंजान थे,
      सोते जगते वो गिरधर ही भजते मिली,
      मीरा जैसी कहीं पर ना भक्ति मिली ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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