मेघ क्या बरस गये
मेघ क्या बरस गये, हरी भरी धरा हुई,
आग थी उगल रही ,ठंडी मधुर हवा हुई ।
सूख चुके नाले,नदियां बह रहे सरर-सर,
पर्वतों से झरने बन जलधार बहे झरर-झर ।
ओढ़ हरियल ओढ़नी है प्रकृति सधवा हुई,
मेघ क्या बरस गये हरी-भरी धरा हुई ।
निकल पड़ा रोपने को पौधा हर किसान है,
आई सूखे होठ पर अब भली सी मुस्कान है ।
पेट की अगन बुझाने का हो आसरा गई,
मेघ क्या बरस गये, हरी-भरी धरा हुई ।
बाट जोहता किसान खड़ा था जो खेत पर,
कभी नजर आसमां पर,कभी खाली पेट पर ।
सोच रहा था न जाने ऐसी क्या खता हुई,
मेघ क्या बरस गये, हरी-भरी धरा हुई ।
झूम उठे खेत, जंगल वर्षा की बौछार से,
प्यास धरती की बुझी, हर तरफ जलधार से ।
खेत भी हरया गये, घर से दरिद्रता गई,
मेघ क्या बरस गये, हरी-भरी धरा हुई ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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