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      || पहाड़ियाँ ||

      पहाड़ियाँ

      पच्चीस वर्ष पूर्व ही दिखती थी सब पहाड़ियाँ,
      पहाड़ियों पर बिछी थी घनी हरी सी झाड़ियाँ ।

      तोड़-तोड़ कर पहाड़ कर दिये मैदान अब,
      ना बची हैं झाड़ियाँ,ना बची पहाड़ियाँ ।

      मिटा प्रकृति सौंदर्य,बसी हुई हैं झोपड़ी,
      लटक रही हैं हर तरफ मैली कुचैली साड़ियाँ ।

      सुनते थे मीठी ध्वनि जो पक्षियों की रात दिन,
      गंदगी, कचरे की वहाँ बन गई अटारियाँ ।

      बन गये अड्डे कई उठाईगीर चोरों के,
      शराबियों की सुनती वहाँ दर्जनों किलकारियाँ ।

      एक मात्र बैलेंस रॉक बचा जो पहाड़ी पर,
      चल रही उसे भी तोड़ने की अब तैयारियाँ ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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