जब रामसेतु का निर्माण चल रहा था। वानर वड़े बड़े पत्थर हनुमानजी को दे रहे थे। हनुमानजी हर पत्थर पर राम का नाम लिखते जा रहे थे। राम का नाम लिखने के बाद वानर उस पत्थर को पानी पर छोड़ देते और वो तैर जाता।
इस दृश्य को प्रभु राम गौर से देख रहे थे।
तो क्या हुआ।
हमारे रामजी खड़े हुए।
और रामजी ने सोचा कि क्यो नही मैं भी एक पत्थर समुद्र पर तैरा कर देखता हूँ,
भगवान ने विना राम का नाम लिखे ही।
पत्थर पानी पर छोड़ दिया और पत्थर पानी मे डूब गया।
वहा खड़े सभी वानर और रामजी की सेना ये दृश्य देखकर अचंभित रह गयी
तब हनुमानजी मुस्कराते हुए बोले।
मेरे प्रभु राम आप जिसको छोड़ देते हो। वो तो डूबेगा ही।
और ये पत्थर आप की वजह से नही आपके नाम की वजह से तैरते है ।
।।राम से बड़ा राम का नाम।। राम से बड़ा राम का नाम।।
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥
भावार्थ : श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥
नल नील द्वारा रामसेतू का निर्माण अदभुद प्रसंग रामचरित मानस
देखि सेतु अति सुंदर रचना।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥जामवंत बोले दोउ भाई।
नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
भावार्थ : जाम्बवान् ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा-) मन में श्री रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥
बोलि लिए कपि निकर बहोरी।
सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पंकज उर धरहू।
कौतुक एक भालु कपि करहू॥॥
भावार्थ : फिर वानरों के समूह को बुला लिया (और कहा-) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में श्री रामजी के चरण-कमलों को धारण कर लीजिए और सब भालू और वानर एक खेल कीजिए॥
धावहु मर्कट बिकट बरूथा।
आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा।
जय रघुबीर प्रताप समूहा॥॥
भावार्थ : विकट वानरों के समूह (आप) दौड़ जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड़ लाइए। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुँकार) करके और श्री रघुनाथजी के प्रताप समूह की (अथवा प्रताप के पुंज श्री रामजी की) जय पुकारते हुए चले॥
अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥
भावार्थ : बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही (उखाड़कर) उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर (सुंदर) सेतु बनाते हैं
सैल बिसाल आनि कपि देहीं।
कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥देखि सेतु अति सुंदर रचना।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥
भावार्थ : वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिन्धु श्री रामजी हँसकर वचन बोले।
परम रम्य उत्तम यह धरनी।
महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना।
मोरे हृदयँ परम कलपना॥
भावार्थ : यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान् संकल्प है॥
बाँधा सेतु नील नल नागर।
राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई।
भए उपल बोहित सम तेई॥
भावार्थ : चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान (स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वाले) हो गए॥
महिमा यह न जलधि कइ बरनी।
पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥
भावार्थ : यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥
भावार्थ : श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं॥
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
देखि कृपानिधि के मन भावा॥चली सेन कछु बरनि न जाई।
गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥
भावार्थ : नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान श्री रामजी के मन को (बहुत ही) अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरों के समुदाय गरज रहे हैं॥1॥
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई।
चितव कृपाल सिंधु बहुताई॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा।
प्रगट भए सब जलचर बृंदा॥
भावार्थ : कृपालु श्री रघुनाथजी सेतुबन्ध के तट पर चढ़कर समुद्र का विस्तार देखने लगे। करुणाकन्द (करुणा के मूल) प्रभु के दर्शन के लिए सब जलचरों के समूह प्रकट हो गए (जल के ऊपर निकल आए)॥
मकर नक्र नाना झष ब्याला।
सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं।
एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥
भावार्थ : बहुत तरह के मगर, नाक (घड़ियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजन के बहुत बड़े विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जन्तु थे, जो उनको भी खा जाएँ। किसी-किसी के डर से तो वे भी डर रहे थे॥
प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे।
मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी।
मगन भए हरि रूप निहारी॥
भावार्थ : वे सब (वैर-विरोध भूलकर) प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं, सब सुखी हो गए। उनकी आड़ के कारण जल नहीं दिखाई पड़ता। वे सब भगवान् का रूप देखकर (आनंद और प्रेम में) मग्न हो गए॥
चला कटकु प्रभु आयसु पाई।
को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥॥
भावार्थ : प्रभु श्री रामचंद्रजी की आज्ञा पाकर सेना चली। वानर सेना की विपुलता (अत्यधिक संख्या) को कौन कह सकता है?॥
जय हो प्रभु राम की, जय हो राजाराम की