वृक्ष
वृक्ष सभी को देते छाया नहीं देखते सगा,पराया,
स्निग्ध गोद प्रकृति की जिसमें सभी के लिए स्नेह समाया ।
स्नेह धुरी प्रकृति की चारों ओर ताजगी फैलाये,
चींटी हो या हाथी इससे कोई अछूता न रह पाये,
कोई नहीं है जग में जिसको प्रकृति का उपहार न भाया,
स्निग्ध गोद प्रकृति की जिसमें सभी के लिए स्नेह समाया ।
नहीं वृक्ष को मतलब इससे फल बूढ़ा या बच्चा खाये,
चाहे तो पक्षी भी फल को चख चख खायें या फैलायें,
किसी को खट्टा किसी को मीठा सब खाते जो जिसको भाया,
स्निग्ध गोद प्रकृति की जिसमें सभी के लिये स्नेह समाया ।
हवा जिधर भी जाये अपने साथ सुगंध बहा ले जाये,
भीनी-भीनी महकी हवा से हर प्राणी का मन हरषाये,
कहां सुगंध भला ये सोचे किस किस का है मन हरषाया,
स्निग्ध गोद प्रकृति की जिसमें सभी के लिये स्नेह समाया ।
कितने ज्ञानी ध्यानी योगी बैठे अपनी अलख जगाये,
कंदमूल फल खाकर कितनों ने हैं अपने जन्म बिताये,
नहीं प्रकृति ने किसी को भी बिन दिये प्रेम अपना लौटाया,
स्निग्ध गोद प्रकृति की जिसमें सभी के लिये स्नेह समाया ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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