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      || अपनापन ||

      नमस्कार मित्रों,

      रामेश्वर ताऊ का बेटा जब हाई स्कूल पास हुआ था तो बाबूजी पूरे गाँव को उसका रिजल्ट बताते फिरते थे। अम्मा किसी और के बच्चे को निवाला खिलाती तो अम्मा की बिटिया हाट बाजार में विमला बुआ और परिवार के साथ जाती थी। गॉंव में किसी के लहलहाती फसलों को देख कर किसी और के होठों पर मुस्कान खिल जाती थी।

      किसी और के घर में गाय, भैंस या बैल आने पर ऐसा लगता था मानो हमारे घर कोई त्योहार हो।

      महिलाओं से भरा हुआ आंगन, ढेंकी कूटते हुए उनकी गीतों से गुलज़ार होता तो बैठक में पुरुषों के ठहाकों से गाँव निहाल होता। गॉंव के मिट्टी के कच्चे घरों में रिश्तों की मज़बूती थी। उन हवाओं में अपनापन घुला हुआ था। 

      हालांकि अब ये सब बातें बिलकुल ही अव्यवहारिक हो गई हैं। विशेषकर उस मुंबई शहर में जहॉं अब मैं रहता हूँ। गॉंव से माँ-बाबूजी को हमारे यहाँ आये हुए अभी तीन महीने भी नहीं हुए थे पर हमारे बच्चों को अब वे चुभने लगे थे।

      बाबूजी का सोसायटी में किसी से बात करना मेरे बच्चों को बिलकुल ही गँवारा नहीं था। बाबूजी का गार्ड से हालचाल पूछना भी उन्हें बिलकुल बेवजह की बातें लगती थी।

      इसकी वजह भी थी। बच्चों के दोस्तों के ग्रैंड मदर और ग्रैंड फादर इंग्लिश में बाते करते थे इसलिए अपने गाँव से जुड़े दादा-दादी उन्हें आउटडेटेड लगते थे। हमारे बच्चों ने अपने दोस्तों को अब इसलिए घर में बुलाना छोड़ दिया था ताकि वे अपने दोस्तों के सामने शर्मिंदा न हों। 

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      हालांकि मैंने और मेरी पत्नी ने माँ-बाबूजी को अभी तक कभी यह एहसास नहीं होने दिया था कि बच्चे उनके बारे में क्या सोचते हैं पर मैं मन ही मन घुटता जा रहा था कि मैंने उन्हें गाँव से अपने यहां आखिर बुलाया ही क्यों था?

      बच्चे इस बात से नाराज़ थे कि सिन्हा अंकल के बेटे ने मेडिकल की परीक्षा पास की थी तो दादा-दादी ने सोसायटी के पार्क में मिठाई बाँटी थी। क्या वह ये दिखाना चाहते थे कि उनके लिए यह बहुत बड़ी बात है?

      इसी तरह गुप्ता अंकल के यहाँ बेटी हुई थी तो दादी उनके यहॉं सोहर गाने क्यों गई थी? क्या वह लोगों को यह बताना चाहती थी कि हम कहाँ से उठकर यहाँ आ गए हैं? इतना ही नहीं, उन्हें तो इस बात पर भी आपत्ति थी कि वे लोग सफाई करने वाले जैसे छोटे लोगों से बातें क्यों करते हैं?

      शायद हफ्ते भर पहले बाबूजी ने भी यह सब कुछ भांप लिया था तभी तो उन्होंने अचानक ही गाँव लौटने की इच्छा जतायी थी। मैंने भी उनके टिकट बनवा दिये थे। बच्चों के भी एग्जाम थे। मैं उन्हें ज्यादा टेंशन नहीं देना चाहता था। अतएव मैं चाहकर भी मॉं-बाबूजी को अपने पास कुछ दिन और रूकने का आग्रह नहीं कर पाया था। 

      मगर यह भी सच था कि मैं अब यह सोंचकर परेशान रहने लगा था कि माँ-बाबूजी के बिना अब मेरा मन कैसे लगेगा?

      स्टेशन जाने के लिए हम लिफ्ट से उतर कर पार्किंग की तरफ बढ़े ही थे कि नीचे एक बेहद ही आश्चर्यजनक दृश्य देखने को मिला।

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      सोसायटी के सारे लोग मॉं-बाबूजी से मिलने के लिए वहॉं जमा थे। हमारे बच्चे भी हमारे साथ ही थे। सफाई करने वाला हाथ जोड़े खड़ा था तो गार्ड की आंखों में आँसू थे। सिन्हा जी को देखकर तो ऐसा लग रहा था जैसे कि मेरे नहीं, बल्कि उनके माता-पिताजी जा रहे हों।

      जब हाय हेलो के बाद मॉं-बाबूजी वहाँ से चलने को हुए तो मिसेज गुप्ता अपनी छोटी बच्ची को गोद में लिए हुए उनका आशीर्वाद लेने के लिए आगे बढ़ी। उन्होंने सर पर पल्लू रख मॉं-बाबूजी दोनों के ही पैर छुए।

      यह सब देख मुझे ऐसा लगा मानो माँ-बाबूजी की आत्मीयता ने हमारे इस सोसायटी में भी गाँव की वही सोंधी खुशबू मिला दी हो। माँ ने मिसेज गुप्ता से उनकी नन्हीं सी बच्ची को अपने गोद में ले लिया और बाबूजी से पूछा, “एक रुपया छुट्टा है जी? बच्ची को कुछ तो आशीर्वाद दे दें। पता नहीं फिर कब इससे मिल पाएंगे?

      बाबूजी ने पॉकेट टटोल कर एक रुपये का एक सिक्का मॉं को दे दिया। माँ ने पल्लू से सौ रुपये निकाल कर उस सिक्के को सौ रुपये के साथ लगा कर बच्ची के हाथ में थमा दिया। नन्हीं बच्ची रूपया-पैसा क्या जाने! 

      वह फौरन नोट को अपने मुॅंह में लेने लगी तो मॉं ने उसके हाथ से रूपये लेकर मिसेज गुप्ता को थमा दिया और उनसे बोली,”दोनों टाइम तेल लगाना। बहुत कमजोर है बिटिया।

      मॉं ने मिसेज गुप्ता को हिदायत दी तो उन्होंने संस्कारी बहू की तरह गर्दन हिलाकर अपनी स्वीकृति तो दे दी पर अपने ऑंसू नहीं रोक सकीं। बच्चों के दोस्त भी वहाँ इक्कठे थे। “दादी जी अब फिर कब आओगी, दादाजी फिर कब आएंगे?

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      सभी उनसे लिपट कर पूछ रहे थे। मेरे बच्चे ये सब दूर से देख रहे थे। मैंने भरी आँखों से कार का पिछला दरवाजा खोल दिया। माँ बाबूजी बैठने ही वाले थे कि हमारी बेटी ने पास आकर मेरी मॉं से कहा, “दादी, हमारे एग्जाम में पास होने की मिठाई तुम यहाँ नहीं बाँटोगी क्या?“, “हां दादी मत जाओ ना” बेटा भी अब कहाँ पीछा रहने वाला था?

      माँ-बाबूजी ने मेरी तरफ देखा। मैंने इससे पहले कभी बाबूजी की आँखों में आँसू नहीं देखे थे।

      मुझको इंगित कर बाबूजी बोले, “सब ई नालायक की गलती है। एक बार भी हमें नहीं रोका। तुरन्त टिकट कटा दिया।

      मैंने जेब से टिकट निकालकर हँसते हुए उन्हें फाड़ डाले। सभी की आँखों में आँसू थे मगर होठों पर हँसी थी क्योंकि कुछ देर पहले जो आंसू बिछुड़ने के गम में आँखों से निकले थे।अब खुशी के आँसू में बदल चुके थे। 

      उस दिन पहली बार मैंने अपने इस महानगर को अपना गाँव होते देखा था।

      लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद मित्रों.

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