हीरोशिमा को याद करें
कुछ सोचें कुछ संवाद करें, हम हीरोशिमा को याद करें,
उन्नीस सौ पैंतालीस छै अगस्त, की स्मृतियों को आबाद करें।
जापान में था हीरोशिमा, वरदान सा था हीरोशिमा,
हंसता गाता नागासाकी, मुस्कान भरा हीरोशिमा।
प्रगति आंखों में गड़ गई, उन्नति आंखों में चढ़ गई,
हस्ती को उसकी रौंदने दुश्मन की भृकुटि अड़ गई।
यूं तो समय था प्रभात का, किरणों कलियों की बात का,
हर दिन जैसा माहौल था, सपना भी न था आघात का।
देवालय अभी ही सजे थे, सवा आठ घड़ी में बजे थे,
न्यूक्लियर टपका आकाश से, तैंतालीस सैकेंड तजे थे।
हुईं पल में हवायें विषभरी, थरथराते हुए धरा उरी,
रोया आकाश था जोर से, यूं तबाही उस बम ने करी।
हर ओर धुआं ही धुआं था, गमगीन लुटा सा समां था,
बस्तियां शहर की खाक थीं, खुशनुमा शहर अब कहाँ था।
ना कोई किसी से मिल सका, कब पत्ता कोई हिल सका,
ना आह भी कोई भर सका, कब फटा जख्म कोई सिल सका।
वो नगर जो आलीशान थे, जापान शहर का मान थे,
नागासाकी और हीरोशिमा, कुछ पल पहले विद्यमान थे।
सभ्यता की कैसी रीत थी , बस नफरत की ही जीत थी,
हावी थी बस हैवानियत, वो भला किसी की मीत थी?
बस्ती व शहर गये कहां, ना खून दिखा न हड्डियाँ,
उन्नति के वे चढ़ते शिखर, रह गये थे केवल दास्तां।
हो गई अपाहिज सभ्यता, पीढ़ी दर पीढ़ी रुग्णता,
धरती बंजर, खंडहर भवन, लूले लंगड़ों की बाध्यता।
नस्लें आगामी गई चरमरा, कोई अपंग कोई अधमरा,
जीवन था मृत्यु से बुरा, सहमा सहमा सा उरा-उरा।
की धू-धू जग ने जीत पर, नफरत की ऊँची भीत पर,
बम जिसने गिराया घृणित पर, किया मानवता विपरीत पर।
विज्ञान का अविष्कार था, नहीं ये तो बुद्धि विकार था,
खूं से तन मन उसका रंगा, खुद से भी वो शर्मसार था।
लानत है ऐसी सोच पर, उन्नति की लंगड़ी लोच पर,
मरहम ऐसा जो सफल हो, विनाश के दर्द की मोच पर।
संकल्प करो ऐसा कि काश, आने से न हो कभी विनाश,
नागासाकी, हीरोशिमा सी, चिथड़े बन-बन के उड़ें लाश।
मतभेद हो कितने भी बड़े, कोई नीचे, ऊपर खड़े,
हल कर लें वार्तालाप से, बमों से न कभी लड़ें।
धरती ये यहीं रह जायेगी, तेरी मेरी कहलायेगी,
इस विनाशकारी विध्वंस को, मानवता ना सह पायेगी।
ना जातिभेद की लानते, ना हों रंगभेद की फजीहतें,
सब पहले खुद को देख लें, न दें इक दूजे को नसीहतें।
जन में बंधुत्व बढ़ाना है, हंसना है और हंसाना है,
परचम जागृति खुशहाली का, मिलकर सबको फहराना है।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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