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      || फुलवा ||

      अपने नाम के अनुरूप फूल सी सुन्दर, कंचन सी देह राशि, गोरा रंग, लम्बाई मध्यम, पहली नजर पड़ते ही कोई भी आकर्षित हो ऐसी रूप की स्वामिनी। फुलवा अनपढ़ और जात की धोबिन थी। घर-घर से प्रेस के लिये कपड़े लेती और प्रेस करने के बाद संध्या को लौटा जाती।

      फुलवा उसी दिन कपड़े ले जाकर उसी दिन लौटाती इसलिये उसे पूरी कालोनी के लोग प्रेस के लिये कपड़े देते मगर वह कपड़े धोती नहीं थी। घर में वह, और उसका पति मिलकर प्रेस करते थे। वैसे उसका पति एक हजार रु. माहवार में किसी ड्राय क्लीनिंग की दुकान में नौकरी भी करता था। सुबह शाम वह फुलवा के लाये कपड़ों में प्रेस करने में मदद करता।

      एक दिन फुलवा गुदीमुड़ी से दो, पाँच व दस के दस बीस नोट लेकर आई जो उसने गेहूँ के डिब्बे में पड़ी गेहूँ में दबा कर रखे थे, नोटों में एक सौ और पचास का भी था। मुझे बाहर बुला कर बोली बाईजी मेरे ये नोट गिन दो और कचड़ा जैसे नोट मेरे आगे बिखरा दिये तब मुझे पता चला कि उसे गिनना नहीं आता न ही सौ और पचास के नोट में फर्क पता था।

      मैं बैंक में कैशियर थी फुलवा इतना जानती थी कि मैं बैंक में नौकरी करती हूँ सो वह मेरे पास ये नोट जमा करवा कर पास बुक बनवाने के लिहाज से लाई थी। मैंने उसका खाता खोलने का फार्म भरकर स्वयं उसके खाते पर पहचान कर्ता के हस्ताक्षर कर पाँच सौ रु. से बचत खाता खुलवा दिया। हस्ताक्षर की जगह उसका अंगूठा निशान लगवाना पड़ा। ये पैसे उसने पति की तनख्वाह व प्रतिदिन प्रेस के कपड़ों से बचाये थे लेकिन उसने अपने पति से इस संबंध में कुछ न बताया क्योंकि फुलवा की नजर में उसका पति मेहनती तो है पर दूरदर्शी नहीं है। वक्त मुसीबत में किससे पैसे माँगेगे सोचकर उसने खाता खुलवाया था उसके बाद फुलवा उस पास बुक में जमा करने हेतु हर माह, कभी सौ कभी दो सौ दे जाती बहुत जल्दी उसकी पास बुक में दस हजार रु. जमा हो गये। उन दस हजार की मैने उसकी पाँच वर्ष में डबल हो जाने वाली एफ.डी. आर. बनवा दी।

      समय का पहिया रुकता कहाँ है वह तो निरंतर गतिशील है। अब फुलवा के परिवार में भी वृद्धि हो चुकी थी। अगले पाँच-छः वर्ष में फुलवा का एक बेटा दो बेटियाँ कुल पाँच लोगों का परिवार हो गया था परन्तु उसका प्रतिमाह पैसा जमा करने का क्रम बंद न हुआ। किसी माह यदि किसी कारणवश वह पैसे जमा न कर पाती तो बहुत दुखी होती । धीरे-धीरे उसे नोटों की पहचान और गिनती वगैरह बनने लगी अब यदि वह पाँच सौ रुपये जमा करने को लाती तो सौ-सौ के पाँच अलग-अलग लिपटे हुए नोट लाती इसका मतलब साफ था कि वह नोटों की पहचान और गिनती जानने लगी थी।

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      हाँ दूसरी तरफ घर खर्च बढ़ जाने के कारण उसने चार-छः घर कपड़े धोने के लिये भी बाँध लिये थे। सुबह चार बजे उठती घर का पूरा काम करती पति व बच्चों का टिफिन भी तैयार कर छः बजे लोगों के घर कपड़े धोने पहुँच जाती। जिस-जिस घर के कपड़े धोती उस उस घर से प्रेस के लिये कपड़े भी बटोरती चलती दो घंटे में चार छः घर के कपड़े धो कर चालीस-पचास प्रेस के कपड़े का गट्ठा सिर पे रखे घर लौट जाती दोपहर में कपड़े प्रेस करती शाम को खाना बना खा कर आठ-नौ के बीच सो जाती यही थी उसकी दिनचर्या।

      बैंक के खाते में उसे अंगूठे के निशान के कारण परेशानी जाती थी सो वह मुझसे अपने हस्ताक्षर लिखा कर प्रतिदिन उसका अभ्यास करते-करते बढ़िया हस्ताक्षर करने लगी हाँ पढ़ना-लिखना वह नहीं सीख पाई क्योंकि उसे काम की अधिकता के कारण सदा समय का अभाव रहता। वह सदा सुपर फास्ट ट्रेन जैसे भागती ही रहती। कभी बिना काम दस मिनिट बैठे मैंने उसे नहीं देखा। हाँ बैंक बैलेंस मंथर गति से बढ़ रहा था। एक पट्टे की जमीन दस हजार में खरीद ली और लगभग पचास हजार लगा कर चार कमरे खड़े कर लिये। छत में लेंटर की जगह टाइल्स लगाये थे। चार कमरों में से दो में खुद रहने लगी दो किराये पर दे दिये। पाँच सौ रु. माहवार किराया आने लगा और खुद जो तीन सौ रु. महीना किराया देती थी वह भी बचने लगा।

      इतना होते-होते उसकी बड़ी बेटी सत्रह अठारह वर्ष की हो गई तो उसके विवाह की तैयारी में जुट गई। बेटी भी माँ जैसी सुंदर थी सो एक पक्की नौकरी वाले लड़के ने उसे पसंद कर लिया तथा फुलवा ने करीब एक लाख रु. से उसका विवाह कर दिया। घर जरूरत का हर सामान फुलवा ने बेटी को दिया था। हाँ बैंक बैलेंस बहुत कम बचा था। बेटी की शादी व अपना घर बनाने के बाद वह दूसरी बेटी के विवाह के लिये पैसा जोड़ने में जुट गई। लड़के के लिये उसे चिंता नहीं थी उसके अनुसार जो कुछ उसके पास है सब बेटे का ही तो है। नया न बन पाया तो अपने जेवर चढ़ा कर लड़के को ब्याह दूँगी ऐसी उसकी सोच थी।

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      अब उसका बेटा भी 12वीं पढ़ने के बाद एक प्राइवेट वर्क शाप में पंद्रह सौ रु. माहवारी पर नौकरी करने लगा। बेटा दूसरी बेटी से बड़ा है पर वह बेटी का विवाह बेटे से पहले करना चाहती है। एक तो उसकी चिंता है कि लड़की सुंदर है दूसरे उसे घर छोड़ कर उसे बंगलों में कपड़े धोने जाना पड़ता है। उसके विवाह लायक पैसे फुलवा ने फिर जोड़ लिये हैं। हाँ दामाद भर मिलने की देर है उसके पति को आज भी नहीं पता कि छोटी बेटी के विवाह लायक पैसे फुलवा जोड़ चुकी है। पति से तो वह यही कहती कि बंगलों से पाँच-पाँच, दस-दस हजार उधार लाई हूँ जो वेतन से कटाती जाऊँगी।

      फुलवा के घर में गैस चूल्हा है, टीवी है। बेटे के पास लूना है अर्थात् घर में आवश्यकता का हर सामान है। अनाज वह साल भर का भरती है। समय तो अपनी मंथर गति से चलता रहता है। बहुत भागदौड़ करके फुलवा ने फैक्ट्री में पक्की नौकरी वाला लड़का छोटी बेटी के लिये भी ढूंढ लिया पर अब उसे महसूस हुआ कि छोटी बेटी भी ब्याह कर चली गई तो घर सूना हो जायेगा सो फिर भागदौड़ में लग गई अच्छी बहू की फिक्र में दिन रात लगी रहती है। उसका विचार है कि बेटी का ब्याह करके तुरंत ही घर में बहू लायेगी।

      कहते हैं मेहनत का रंग बहुत निराला होता है सो फुलवा को बेटे के लिये अच्छी लड़की भी मिल गई। अपनी हैसियत के अनुरूप फुलवा ने बेटी की शादी में भी कोई कमी न रखी। शादी के लिये मेरिज हाल किराये पर लिया गया बिटिया को घर का पूरा सामान देकर बिदा किया। बेटी के विवाह के पंद्रह दिन बाद का बेटे के विवाह का मुहूर्त निकला था सो फुलवा बेटे के विवाह की तैयारी में जुट गई। लगभग किलो भर चाँदी के जेवर व सोने का मंगलसूत्र, चूड़ी, अंगूठी, झुमका आदि पूरा जेवर फुलवा ने बनवाया था पर इस बार फुलवा पर लगभग बीस हजार का सुनार का कर्ज हो गया था इस बात से वह थोड़ी चिंतित थी।

      आज फुलवा के बेटे की बारात जाने वाली थी। बैंड वाला गाना बजा रहा था “आज मेरे यार की शादी है।” फुलवा नई साड़ी पहने बड़े जोश से शादी के कामों में जुटी थी। हाँ थकान के कारण उसकी आवाज भारी लग रही थी पर आँखों में पूरन मासी की चमक थी। हर कोई फुलवा की खुशी देख खुश था। बारात गई बढ़िया शादी हुई और चाँद-सी बहू घर आ गई।

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      स्टेज पर फुलवा की बहू-बेटे बैठे थे, पास ही फुलवा कुर्सी पर बैठी थी।

      हम भी फुलवा को बधाई देने पहुँचे फुलवा उठी और पूरे आदर-भाव से तीन बार मेरे पाँव छुये मैं बहुत कठिनाई से उसे उठा पाई। वह आँखों में खुशी के आँसू भरकर बोली “ये सब आपकी दया का नतीजा है”। मैं समझ न पाई कि वह कहना क्या चाहती है सो मैंने पूछा “मैंने ऐसा क्या किया है।” वह बोली आपने मुझे नोट पहचानना, गिनती करना, हस्ताक्षर करना, पैसे जोड़ना और जरूरत के अनुसार खर्च करने की शिक्षा दी सो आज का ये शुभ दिन देखने को मिला, नहीं तो मैं तो गेहूँ के पीपों में नोट रखती रहती कभी चूहे खा जाते कभी गुम जाते । आपने मेरे परिवार की जिंदगी ही बदल दी”।

      मैं सोच में डूब गई कि मेरा तो मात्र राह दिखाने का काम था। मेहनत से पैसे कमाना तो उसी के बस की बात थी। वह यूँ ही मेरी तारीफ कर रही थी। मेरे साथ जो मेरी पड़ोसी महिलाएँ गई थीं वे हमारी आत्मीय अंतरंगता को देख हैरान थीं क्योंकि मैने नौकरी पेशा होने की व्यवस्तता निभाते हुए उसकी मदद की थी जबकि मेरी पड़ोसी महिलाएँ दिन भर खाली पीली सो जातीं। किसी की मदद करने का जज्बा या भाव उनमें न था। आज फुलवा की खुशी देख मेरा गला भी खुशी से सँध गया। मुझे लगा जैसे फुलवा मेरी प्यारी सखी सहेली है। फुलवा के बेटे-बहू को आशीर्वाद देकर मैं खुशी खुशी लौट आई पर मेरे पैरों में जैसे फूल बिछ गये हों। हवा में जैसे खुशबू फैल गई हो अजीब सी अलौकिक खुशी से मैं खुद को चमत्कृत अनुभव कर रही थी। घर पहुँचकर मैने ये पंक्तियाँ लिखीं –

      इन्सान बड़ा हो सकता है कोशिश तो करे,
      पैरों पे खड़ा हो सकता है कोशिश तो करे,
      वो रौंद सकता है हर राह की रुकावट को,
      खुशियाँ जड़ा हो सकता है कोशिश तो करे।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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