मँगेड़ीलाल
मेरे मोहल्ले में एक मँगेडीलाल रहते हैं,
जो माँग-माँग कर अपना सारा काम करते हैं।
माँगने की शुरुआत पाँच सौ रुपये के फुटकर माँगने से करते हैं।
नोट बिल्कुल नया, कड़क व असली सामने वाले के समक्ष पेश करते हैं।
यदि सामने वाले के पास पूरे पाँच सौ रुपये फुटकर न हों,
तो सौ-पचास रुपये कम लेकर उसके दिल और दिमाग में अपना घर करते हैं।
फिर माँगने का ऐसा सिलसिला शुरु करते हैं-
कि जब तक सामने वाला स्वयं मँगेड़ी न बन जाये,
तब तक जनाब पीछा नहीं छोड़ते हैं।
जब पहली बार मँगेड़ीलाल जी ने मुझसे पाँच सौ रुपये फुटकर लेकर पड़ोसीपन जताया,
तो उसके पाँच मिनट के भीतर ही मेरे दूसरे पड़ोसी शर्मा जी का फोन आया।
शर्मा जी बोले- मँगेड़ीलाल आया था क्या?
मैंने कहा- जी, आये तो थे।
वे बोले- फुटकर ले गया क्या ?
मैंने कहा- जी, आपसे भी माँगने आये थे क्या?
वे बोले- मेरे पास पाँच साल पहले आया था।
तब मैं उसे नहीं समझ पाया था।
आप सावधान रहियेगा!
ज्यादा व्यवहारबाजी में मत पड़ियेगा।
उस दिन मैंने मन-ही-मन शर्मा जी को बहुत कोसा था।
अजीब हैं लोग, परस्पर फलते-फूलते रिश्ते नहीं देख सकते हैं।
मैं इनकी क्यों मानू?
क्या हम अपनी इच्छा से नहीं जी सकते हैं?
फिर क्या, मँगेड़ीलाल जी का माँगने का सिलसिला शुरु हुआ।
कभी कुछ, तो कभी कुछ माँगने अक्सर ही आ जाते;
खाने-पीने वाली चीजें तो गई भाड़ में,
स्कूटर-मोटर साइकिल जैसा सामान तब तक न वापस करने आते,
जब तक कि हम स्वयं मँगेड़ी बनकर अपना ही सामान माँगने उनके घर जाते।
क्योंकि, वे भाई साहब कोई सामान ले जाने के बाद फोन कदाचित ही उठाते
और दूसरे ही दिन फिर कोई दूसरा सामान माँगने आते और निः संकोच फरमाते-
भाई साहब! आपको मैं बिल्कुल अपना मानता हूँ।
इसीलिए जब भी कोई जरुरत होती, आपके ही पास आता हूँ।
‘आप तो बहुत भले आदमी हैं’, मेरी पत्नी भी कहती हैं, मुझे सुनाते और शर्म के मारे हम कुछ कह न पाते।
एक दिन ‘उनकी पत्नी मेरी तारीफ करती हैं’
यह बात न जाने कैसे मेरी पत्नी के कान में पड़ गई।
पाँच फुट की बीवी पन्द्रह फुट उछल गई।
बीवी का विराट रुप देखकर मैं बहुत घबराया।
लड़खड़ाती जबान से रहीमदास जी का दोहा उसे सुनाया-
‘रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहिं।।’
उस दिन तो न जाने कितनी दलीलें देकर किसी तरह मैंने बीवी को समझाया।
पर वाह रे मँगेड़ीलाल ! दूसरे ही दिन उसने फिर दरवाजा खटखटाया
और बअदब बन्दे ने फरमाया- भाई साहब! अपनी इस्तरी दे दीजिए।
मैंने कहा- मँगेड़ीलाल! जबान सँभाल कर बात कीजिए।
वह बोला- ऐक्चुली, पाँच दिनों से धोबी नहीं आया, घर में कपड़ों का ढेर लग गया।
सोचा- ‘आपकी इस्तरी’ इतना कहते हुए लड़खड़ाया।
पत्नी के डर से इस बार उल्टे ही पाँव मैंने उसे भगाया।
लाख कोशिशों के बाद भी यह बात पत्नी से छिप नहीं पाई।
‘इस्तरी’ माँगने आया था मँगेड़ीलाल, वह जान गई।
सफाई देते-देते मेरी जबान लड़खड़ाती थी।
पत्नी मुझे लेक्चर-पे-लेक्चर पिलाती थी।
व्यवहारकुशल बुद्धू!
समाज के सीधे-सादे शुद्ध!!
अब भी अगर तुम्हारा व्यवहारबाजी का नशा न उतरेगा,
तो कपड़े की इस्तरी के बहाने एक दिन माँस-हाड़ की स्त्री माँगने मँगेड़ीलाल निकलेगा
और तुम एक-एक करके सब कुछ देते जाओगे बाद में खाली हाथ झुनझुना बजाओगे।
अरे! इस समाज में न जाने कितने मँगेड़ी महापात्र मुँह बाये घूम रहे हैं,
सुपात्र धूल फाँक रहे और मँगेड़ी माँगने का धंधा अपना कर फल-फूल रहे हैं।
यही हाल मत माँग-माँग कर देश के मँगेड़ीलाल नेताओं ने किया है
और हमने मात्र मत समझकर बिना समझे-बूझे उसका दान किया है।
अतः अक्ल के भोंदू!
जरा चेत जाओ!
देना है जो कुछ,
उसे सुपात्र को थमाओ।
कोई सामान, सलाह या फिर अपना मत किसी कुपात्र को मत देना।
वरना मुश्किल हो जायेगा हम सबका जीना।
और, ये देश के मँगेड़ीलाल नेताओं की तरह माँग-माँग कर खुद तो महीपति बन जायेंगे
और हम सबको मँगेड़ीलाल बनायेंगे।
लेखक
श्री विनय शंकर दीक्षित
“आशु”
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