स्वाभिमान किसी बादशाह की जागीर नहीं है। हर व्यक्ति को किसी न किसी महफिल, गली, नुक्कड़ या बाजार में कोई न कोई वाकया देखने को अवश्य मिला होगा। जब किसी अदना व्यक्ति के स्वाभिमान ने आपको हैरत में डाल दिया होगा। मुझे भी कई बार ऐसी घटनाएँ देखने को मिलीं कि बस मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ गईं।
पहली घटना मेरे घर के पास के देवी मंदिर की है। मैं रोज शाम को देवी माँ के दर्शन करने जाती थी। वहाँ जितने भी भिखारी बैठे हों उन सबको 25 पैसे 50 पैसे या एक रु. प्रतिदिन देती थी। एक दिन सबको बाँटने के बाद मैं दर्शन करने देवी स्थान पहुँची वहाँ एक दुबला-पतला वृद्ध भिखारी नुमा सज्जन (आज उसके लिये सज्जन छोड़ कोई दूसरा शब्द नहीं है) व्यक्ति देवी माँ को साष्टांग प्रणाम करके वहीं बैठ गया। उस समय मंदिर में कोई अन्य न था और सबको बाँटने के बाद मेरे हाथ में चार-पाँच चवन्नी बची थीं। न मालूम क्यों मैंने प्रसाद के साथ वो सभी सिक्के उसे दे दिये उसने भी हाथ बढ़ा कर ले लिये (वह शायद प्रसाद मात्र समझा था) उस दिन मेरे पास अधिक पैसे बचे होते तो और दे देती क्योकि दिसंबर की ठंड में उसके शरीर पर पतला घिसा हुआ कुरता और वैसी ही मैली- कुचैली प्नोती मात्र थी, न स्वैटर न कंबल, न टोपा या गमछा उन जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में उसका शरीर भी हड्डियों का ढाँचा मात्र दिख रहा था जो मेहनत-मजदूरी का स्पष्ट दर्पण था।
मेरे मन ने अनुभव किया कि यह व्यक्ति बहुत मदद पाने योग्य है सो हाथ में जो कुछ था उसे दे दिया और मैं मंदिर के सामने बने शंकर जी, सांई बाबा आदि के मंदिर में नमन करने चली गई (दोनों मंदिर आमने-सामने हैं) अचानक मंदिर की ग्रिल (जाली) में से मेरी नजर बाहर पड़ी तो वे वृद्ध सज्जन मेरे दिये सिक्के बाहर बैठे भिखारियों को बाँट रहे थे साथ ही थोड़ा-थोड़ा प्रसाद भी दे रहे थे।
मैं हैरान हो उसे देखती रह गई। उसके पैर में चप्पल जूता भी नहीं था। सच कहा जाये तो बाहर बैठे भिखारियों के शरीर पर उससे बेहतर रंगत व वस्त्र थे। मैंने मन ही मन इसके स्वाभिमान व पुरुषत्व को प्रणाम किया।
उसके बाद भी मैंने उसे दो-चार बार मंदिर में मिले प्रसाद को भी बाहर बैठे भिखारियों में बाँटतें देखा।
मसीहा हर जगह है जरा आँख तो खोलो,
दिल में उनकी भावना और कर्म तो तोलो।
आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व मेरे पड़ौस में एक सेठी परिवार रहता था। पति-पत्नी एक बेटा एवं एक बेटी। उनका एक जनरल स्टोर था भले ही वे किराये के मकान में रहते थे पर किसी चीज की कमी न थी। फ्रिज में दर्जनों अंडे, कोल्ड ड्रिंक्स रहता तो बिस्कुट के टीन भरे रहते। अचानक उनकी दुकान बैठने लगी। उड़ती- उड़ती खबर सुनी थी कि शायद सेठी जी सट्टा खेलते थे सो दुकान का सामान बिक्ते-बिकते खाली हो गया पर और सामान भरने को वैसा न बच पाता उनका चार महीने का दूध का बिल छः माह का परचून की दुकान की उधारी हो गई।
सेठी जी अपने घर में अपनी पत्नी से भी अपनी हालत न बताते थे। अंदर- अंदर घुटे जा रहे थे। एक दिन न जाने किस झोंक में मेरी माँ को अपनी वास्तविक स्थिति बता गये हमारी डेरी चलती थी सो हमें भी दूध का चार माह का पैसा लेना था। इसी कारण उन्होंने मजबूरी कह लो या झोंक कह लो बता दिया। मेरी माँ ने सोचा पत्नी और बच्चों को पता नहीं है ये अकेले घुट रहे हैं। बहुत सोच-विचार कर एक दिन मिसेज सेठी को घर बुलाया व बड़े धीरे से सहते सहते अंदाज में उन्हें बताया कि उनकी दुकान नहीं चल रही है व सेठी जी पर काफी कर्ज हो गया है। आप अपना घर खर्च अपनी गुदड़ी देख कर चलायें।
मिसेज सेठी जैसे आसमान से गिरी हों उन्हें झटका सा लगा पर वे बहुत गंभीर महिला थीं उन्होंने अपने पति को कर्ज व परेशानी से निकालने का फैसला कर लिया। एक हजार रु. महीने के किराये के घर को छोड़ तुरंत दो कमरे वाले दो सौ पचास रु. माहवारी वाले मकान में शिफ्ट हो गईं। जहाँ दो लीटर प्रतिदिन दूध लेती थी आधा लीटर लेने लगी उसमें भी आधा पाव की चाय सुबह बनती आधा पाव की शाम। फिर भी एक पाव इस गरज से बचा रखतीं कि कोई मेहमान आया तो उन्हें अच्छी चाय ही देंगे ताकि लोग उनकी गरीबी पर न हँसें। उनके घर में एक अंगूर की बेल थी उसमें खट्टे-मीठे अंगूर लगते थे उन अंगूरों में नमक मिर्च डाल चटनी बनाकर बहुत बार उन्होंने सब्जी का काम लिया।
बेटा क्राइसचर्च में पढ़ता था उसने भी पिता को साथ देना ठान लिया। स्कूल से आने के बाद दुकान में गन्ने के रस की मशीन से गन्ने का रस निकाल आसपास के आफिस वगैरह में भेजता जो लड़का मशीन चलाने को रखा उसे रस लेकर भेज देता खुद उसकी जगह रस निकालता। उसके हाथों में भट्ट पड़ गये पर उसने हिम्मत न हारी। लड़की ने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया जिससे भाई-बहन की स्कूल फीस व पढ़ाई का खर्च निकलने लगा। बाई बरौनी अलग कर दी गई सब घर का काम झाडू-पोंछा तक खुद करने लगीं।
एक साल के अंदर ही दूध का उधारी, परचून दुकान की उधारी व अन्य छोटी-मोटी देनदारियाँ उतार दीं। दुकान में भी सामान बढ़ने लगा पर उन्होंने अपने घर के खर्चे नहीं बढ़ाये। घर के चारों लोग मितव्ययी व समझदार हो गये।
हाथ की तंगी के चलते भी मिसेज सेठी ने समाज में अपनी आनबान को अपनी चतुराई व समझदारी से बनाये रखा। किसी का बच्चा होने वाला है तो मिसेज सेठी ने दस रु. की ऊन लेकर अंदर ही अंदर छोटा सा स्वेटर, टोपा, मौजे बना कर रख लिये छोटे-छोटे टुकड़े जोड़ कर फ्राक झबला आदि बना लिये। पुराने कपड़े को धो कर आठ-दस नैपकिन बनाकर रख लेती और जैसे ही रिश्तेदारी या पड़ौस में डिलीवरी होती व तुरंत जरूरत के वक्त अपने हाथ से बनाये बच्चे के जरूरत के कपड़े दे देती।
अक्सर ऐसा होता है कि बाद-बाद में तो बच्चे के लिये पच्चीसों जोड़े आ जाते हैं पर जिस वक्त बच्चा पैदा हुआ उस वक्त उसकी जरूरत पर मिसेज सेठी के कपड़े सूत के नहीं सोने-चाँदी की तारों के जड़े लगते।
अगर जान-पहचान या रिश्तेदारी में किसी के यहाँ कोई गमी हो गई तो बाकी पड़ौसी या रिश्तेदार बैठे गम मनाते रहेंगे परं मिसेज सेठी अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर लौट आतीं, आलू उबाल कर रसे वाली सब्जी व पच्चीस-पचास जितनी संभव हुई रोटी सेंकी और जैसे ही अर्थी गई घर के लोग नहाये तुरंत मिसेज सेठी का खाना पहुँच जाता भले ही दूसरे व तीसरे वक्त का खाना पुड़ी, छोले या स्पेशल टाइप का कहीं से भी आये पर जिस घर में गमी हुई हो, लोग रोते बिलखते आधे हो जाते हैं कलेजा मुँह को आ जाता है बच्चों तक का किसी को होश नहीं रहता कि बच्चे भूखे होंगे ऐसे में गरम-गरम सब्जी-रोटी का महत्व वही बता सकता है जिसने ये दुर्दिन भोगा हो।
अपनी समझदारी से मिसेज सेठी बड़े बड़े अमीरों के व्यवहार पर भारी पड़तीं। पैसे की कमी को वे अपनी मेहनत व दिमाग की चतुराई व सेवा भाव से भर देतीं। काश कि हर मनुष्य अपनी सोच मिसेज सेठी जैसी बना ले तो दुनिया का स्वरूप ही बदल जाये। न अभावों के शूल चुभे न बेईमानी पनपे।
इसी बीच उनकी बेटी बी.एससी. पास कर चुकी तथा एक संपन्न घर से उसके लिये रिश्ता आया। जिनकी भोपाल में कोठी थी। एक ही लड़का था सो बेटी का विवाह चुटकी में हो गया। कहते हैं बेटी की शादी में हर स्थान पर भगवान् आकर खड़े हो जाते हैं। ठीक वैसा ही हुआ हर नेंग दस्तूर रस्म-रिवाज बड़े सलीके से निभाये गये और बेटी अपने घर की हो गई। आज उनकी बेटी भी बेटी- बेटे वाली हो चुकी है। अपने परिवार में खुश है।
समय अबाध गति से चलता रहा मिसेज सेठी की बहन आस्ट्रेलिया में रहती थीं उनके एक भारतीय परिचित ने जो आस्ट्रेलिया में बस गये थे जिनकी शादी योग्य दो लड़कियाँ थीं अपनी पुत्रियों के लिये भारतीय वर की इच्छा जाहिर की। उन्होंने मिसेज सेठी के सुपुत्र की तारीफ कर दी आस्ट्रेलिया से लड़की का परिवार भारत आया वर दिखाई हुई झट मंगनी पट ब्याह हो गया। लड़की की सिटीजनशिप के आधार पर लड़के को आस्ट्रेलिया का वीजा मिल गया। एक वर्ष के अंदर वह आस्ट्रेलिया का सिटीजन बन गया, जबकि आस्ट्रेलिया का सिटीजन बनना दुनिया के हर देश में सिटीजन बनने से मुश्किल है।
आस्ट्रेलिया में मिसेज सेठी के बहू-बेटे दोनों ने नौकरी करके काफी पैसा कमाया। वहाँ उन्होंने अपना घर बनाया। पति-पत्नि ने अलग-अलग कार खरीदी। चार-छः साल में ही उन्होंने अपना थ्री स्टार होटल बना लिया और उसके भी तीन साल बाद पाँच तारा होटल के मालिक बन बैठे। मिसेज सेठी को भी उनका बेटा आस्ट्रेलिया ले गया उनके इस बीच एक पोता एक पोती जन्म ले चुके थे।
समय अपनी करवट बदल चुका था। मिसेज सेठी के आगे पीछे धन, वैभव, ऐश्वर्य दौड़ने लगा। भले ही इन सबके पीछे उनके बेटे का कड़ा परिश्रम और नेक इरादे रहे हों पर मुझे तो सब मिसेज सेठी के कर्मों का फल ही लगता था । आस्ट्रेलिया के नियमानुसार एक निश्चित उम्र के बाद बुजुर्गों का खर्च भी सरकार उठाती है। आज वे अपने बेटे पर भी आश्रित नहीं है। हर दो-तीन साल में भारत आती हैं क्योकि उन्हें अपने देश से बहुत लगाव है। आस्ट्रेलिया में भी उनका घर ऐसे स्थान पर है जहाँ अधिकतर भारतीय रहते हैं। मंदिर गुरुद्वारा है। वहाँ भी उनकी दिनचर्या में कोई विशेष अंतर नहीं आया। वहाँ भी उनका सेवा भाव बरकरार है।
वहाँ अपनी पेन्शन से उन्होंने धन बचा कर अपनी बेटी की बेटी को कम्प्यूटर ट्रेनिंग के लिये 2 वर्ष के लिये अपने खर्च पर बुलाया। बच्ची ने लगन से पढ़ाई की और वहीं की एक कंपनी ने बच्ची को अच्छे वेतन पर नौकरी में रख लिया। बेटी के आधार पर मिसेज सेठी की अपनी बिटिया भी आस्ट्रेलिया पहुँच गई है। अब मिसेज सेठी का पूरा परिवार आस्ट्रेलिया का नागरिक बन चुका है और संपन्नता इतनी है कि कहने की जरुरत ही नहीं है।
जब कभी वे भारत आती हैं तो सभी जान पहचान में लोग उन्हें अपने घर में रुकने ठहरने का निमंत्रण देते हैं पर वे रुकती साधारण परिस्थिति वाले मित्रों- रिश्तेदारों के घर में ही हैं। उनके किसी व्यवहार में फर्क नहीं आया। बेटा तो देखने में धनी व्यापारी दिखने लगा है पर मिसेज सेठी ने सादा जीवन उच्च विचार ही अपना रखे हैं। हाँ स्वाभिमान पर उन्होंने कभी आँच नहीं आने दी उन पर ये पंक्तियाँ फिट बैठती हैं:
किस्मत से शिकवा नहीं, मिले फूल या शूल,
हँसकर ही करते रहे, प्रभु का दिया कबूल।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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