चंडीगढ़ से लगभग दो घंटे चलने के बाद कोटला नामक शहर आता है। कोटला से बीस-पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की सीमा रेखा पड़ती है। रेखा के उस पार पाकिस्तानी फौजियों की ड्यूटी रहती है, इस ओर भारतीय जवानों की ड्यूटी। प्रतिदिन सुबह सात-आठ बजे उस पार के फौजी बकायदा परेड करते हुऐ आते हैं और पाकिस्तान के झंडे को सलामी देते हैं और इस पार भारतीय फौजी भी परेड करते हुए पूरे नियम से भारतीय तिरंगे को सलामी देते हैं। उधर पाकिस्तानी फौजी भारतीय फौजियों को अपना देश प्रेम दिखाते हैं, इधर भारतीय फौजी भी पाकिस्तानी फौजियों को अपना देश प्रेम दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ।
दोनों देशों के फौजियों की देश प्रेम की प्रतिस्पर्धा देखने अक्सर सुबह- शाम सैलानियों व देश प्रेमियों की भीड़ सी लग जाती है। दोनों समय अर्थात् सुबह और शाम को सीमा रेखा पर तैनात फौजी एक दूसरे को खा जाने वाली आँखों से घूरते हैं। इस सीमा रेखा का नाम वाघा रेखा भी है।
हाँ बीच के समय में उनकी दुआ-सलाम वगैरह भी हो जाती है। कभी-कभी ठंड की कड़कती रातों में फौजी पीठ की तरफ हाथ करके एक आध पैग या सिगरेट वगैरह भी आदान-प्रदान कर लेते हैं। ये सिलसिला सालों से चल रहा है।
दिसम्बर 2002 की शाम आठ बजे के लगभग भारतीय सीमा का जवान लांस नायक अमर सिंह ठाकुर भारतीय सीमा पर गश्त लगा रहा था अचानक पास की झाड़ी से पाँच-छः फुट लंबा विषधर निकला और अमर सिंह के बायें हाथ में अपने जूते के फीते ठीक करते समय डस लिया।
‘मर गया रे’ कहते हुऐ अमर सिंह लगभग चीख पड़ा। उस समय भारतीय फौजी क्योकि दूर रहे होंगे उन्होंने अमर सिंह की चीख नहीं सुनी, सर्प की लंबाई देख वह वैसे ही अधमरा सा हो गिर पड़ा पर सीमा के उस तरफ अख्तर नामक फौजी ने वस्तुस्थिति समझ ली उसने झट अपने साथी को आवाज देकर बुलाया और उसे पास के झाड़ से नीम लाकर पत्थर पर कूटकर रस निकालने की हिदायत देता हुआ स्वयं दो तारों के मध्य से रास्ता बना कर इस तरफ आ गया।
झाड़ पर लगी लताएँ खींच रस्सी के समान बना कर अमर सिंह की बाँह कसकर बाँध दी ताकि विष आगे न जाने पावे। इस बीच उसका साथी नीम कूट कर रस निकाल लाया। अख्तर ने वह रस अमर सिंह को पिलाया तथा बीच-बीच में अपने फ्लास्क के कप से काफी पिलाता रहा उसे सोने न दिया। लगभग एक घंटे बाद भारत का दूसरा सिपाही गश्त लगाते हुए वहाँ पहुँचा तो अख्तर ने अमर सिंह के साथ घटी घटना उसे सुनाई। दूसरा सिपाही उसे उठा कर पास के कैंप में ले गया। वहाँ से उसे अस्पताल भेजने की व्यवस्था की गई और बहुत कोशिश करके अमर सिंह को बचा लिया गया।
अमर सिंह अस्पताल में पड़े पड़े अख्तर की इन्सानियत को दुआएँ देता रहा। स्वस्थ होने पर अमर सिंह सीमा पर उसे धन्यवाद देने पहुँचा। इस तरह दो मजहबों का नफरत रूपी भेड़िया, इन्सानियत रूपी गाय के आगे दम तोड़ चुका था।
फिर तो कई बार वे सूने में अपने सुख-दुःख की बातें किया करते। एक दिन अख्तर ने बताया कि उसकी बुआ जिसका नाम अनवरी है लखनऊ के एक शहर में रहती है, उसने सुना है वह बीमार है अख्तर उसे देखना चाहता है पर जा नहीं सकता। अमर सिंह ने उससे उसकी बुआ का पता लिया व जैसे ही उसकी छुट्टी मंजूर हुई वह सीधे लखनऊ पहुँच गया।
अख्तर के बताये पते पर पहुँचा बहुत तलाश करने के बाद एक बस्ती में अख्तर की बुआ अनवरी बी का ठिकाना मिल गया। अमर सिंह ने अनवरी बी के घर पहुँच कर देखा कि वह काफी बीमार थी उसके पेट में शायद केन्सर था। इलाज में घर का सारा सामान बिक गया। उसकी एक बेटी थी जिसका विवाह हो चुका था। पति व बेटा छोटी-मोटी नौकरी तो करते थे पर भयंकर बीमारी में उनकी तनख्वाह दाल में राई की तरह न जाने कहाँ चली जाती।
अमर सिंह ने अनवरी की दयनीय दशा देखी तो पसीज उठा तुरंत अपने घर ट्रंककाल लगाकर दो लाख रु. मंगाये क्योंकि वह अच्छे घर का लड़का था।
मिलिट्री में काम वह अपने शौक से कर रहा था। अतः पैसे आ गये अमर सिंह ने अनवरी व उसके पति का मुंबई का रिजर्वेशन कराया और उसे मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में भर्ती करवा दिया। उसका ऑपरेशन व इंजेक्शन आदि का खर्चा स्वयं वहन किया क्योंकि ऑपरेशन जल्दी करवाना था और टाटा अस्पताल में ऑपरेशन का नंबर लगभग एक माह बाद आता। सो वहीं दूसरे अस्पताल में ऑपरेशन व इलाज करा कर लगभग बीस-पच्चीस दिन अनवरी को मुंबई में रखा स्वयं उसकी देखभाल की। पैसा लगाया और वापिस लखनऊ छोड़ते हुए वापिस अपनी ड्यूटी पहुँच गया। अमर सिंह की एक माह की छुट्टी पूरी की पूरी यूँ ही चली गई। मात्र दो दिन वह यू.पी. के अपने गाँव में रहा ।
सीमा पर अख्तर अमर सिंह का इंतजार कर रहा था क्योंकि उसे पता था कि आज अमर सिंह का छुट्टी का एक माह बीत चुका है व उसकी ड्यूटी में हाजिर होने का दिन है। जैसे ही अख्तर ने अमर को देखा उसकी आँखों में खुशी की चमक भर गई। रात को मौका मिलते ही अमर सिंह ने उसकी बुआ अनवरी का पूरा हाल इस तरह सुनाया जैसे अख्तर स्वयं मिल कर आया हो। दोनों के बीच न मजहब की दूरी थी न सरहद का फासला। वाघा रेखा मिलन रेखा बन गई थी। प्रेम के आँसुओं ने मजहबी मैल धो दिया था।
दिल से दिल का रिश्ता था बीच में कुछ था तो वह थी महज इन्सानियत। दोनों के मन में किसी शायर की ये पंक्तियाँ दौड़ रही थीं –
हिन्दू का लहू लाल है, मुस्लिम का लहू लाल,
फिर किस लिये मचा है जात-पाँत का बवाल,
दोनों के जिस्म पर है एक सी ही नर्म खाल,
हम तोड़ क्यों न दें ये नफरत से भरा जंजाल।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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