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      || आशु-वाणी | रे स्वान सभ्यता-संस्कृति के कुल दीपक ||

      रे स्वान सभ्यता-संस्कृति के कुल दीपक

      मोहल्ले के एक बूढ़े कुत्ते ने पालतू पिल्ले से कहा-
      रे स्वान सभ्यता-संस्कृति के कुल-दीपक!
      अब वफादारी की मशाल तुम्हारे हवाले है।
      इन्सानियत की रोशनाई से इसे हर हाल में बचाना।
      जब तुम्हारा मालिक मक्कारी और बेइमानी से अर्जित,
      आय का तुम्हें डाले दाना,
      तो तुम मेरे बच्चे उन्हें खाने से कतराना।

      और, यदि मजबूरी में तुम्हें खाना ही पड़े ऐसा खाना,
      तो तुम जैसा अन्न, वैसा मन बनाकर,
      अपनी स्वान-सभ्यता पर कलंक मत लगाना।
      जब तुम्हारा स्वामी तुम्हें इन्सानी संबोधनों से,
      चाहे बुलाना, तो कुत्ता-कुल गौरव !
      तुम शर्म से अपना सिर झुकाना।
      जैसे भी हो तुम आदमियत के लक्षणों के संक्रमण से,
      अपने आप को बचाना।
      और वफादारी, जिसे अपने बाप-दादों ने,
      आज तक पाला है, हर हाल में निभाना ।

      भगवान भैरव ने हमें अपना वाहन बनाया है।
      उनका भरपूर प्यार हमने भी पाया है।
      किन्तु इस इन्सान से तो प्यार से ज्यादा दुतकार ही पाया है।

      मान-अपमान को भुलाकर फिर भी हमने कर्तव्य को निभाया है।
      अरे, इतिहास साक्षी है- हमने जिसकी जूठन तक खायी है,
      उसके आगे-पीछे हमेशा दुम हिलायी है।
      और ये आदमी जिस थाली में खाता है, उसी में छेद करता है।
      अपने आप को प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहता है।
      और बहुत हेय दृष्टि से आपस में एक-दूसरे को,
      कुत्ता कहता है।
      मुझे तो इसके मानवीय नामों से अपना ‘कुत्ता’ नाम ही अच्छा लगता है।
      कुत्ता वफादारी का प्रतीक बनकर आज भी मिशाल रखता है।

      अरे! ये इन्सान होकर इन्सान के धर्म को निभा नहीं पाया,
      तो कुत्ते के धर्म को क्या निभायेगा ?
      आपस में एक-दूसरे को कुत्ता कहकर,
      अब ‘कुत्ते के नाम’ पर भी कलंक लगायेगा।
      हमारे ‘काटने और चाटने’ दोनों को तो इसने बुरा बतलाया है।
      सुना है हमारी ‘काट’ को निष्प्रभावित करने के लिए,
      इसने कोई इंजेक्शन तक बनाया है।

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      किन्तु मेरे बच्चे! तुम इस आदमी की ‘काट’ से,
      अपनी पीढ़ी को हर हाल में बचाना।
      क्योंकि, इसकी ‘काट की काट’ के लिए,
      हमारे वश में नहीं है कोई इंजेक्शन बनाना।

      लेखक
      श्री विनय शंकर दीक्षित
      “आशु”

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