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      || चाल-चलन ||

      चाल-चलन

      रंग बदलते चेहरों की, पहिचान समझ न आती है ।
      मुँह मे राम बगल में छूरी, परिभाषित कर जाती है ।।
      माना दीपक तले अँधेरा, हर जीवन मे होता है ।
      पर मानव की मानवता पर, वतन अभागा रोता है ।।

      इंसानों के चाल-चलन, हो गये जानवरों से बदतर ।
      मानव ने खुद बना लिया, अपना दानव सा है स्तर ।।
      अपनी बहन-बेटियों पर भी, नजर छिछोरी रखता है ।
      मान और सम्मान ताक रख, कुछ पैसों में बिकता है ।।

      झूठ-फरेबी, चाटुकारिता, रग-रग मे है बसी हुई ।
      संस्कारिता जनजीवन की, लगता गिरवी रखी हुई ।।
      इंसानों के धर्म-कर्म सब, तार-तार से लगते है ।
      अपने चाल-चलन ही से सब, रावण वंशज दिखते है ।।

      लेखक
      राकेश तिवारी
      “राही”

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