More
    29 C
    Delhi
    Thursday, May 2, 2024
    More

      || सच्ची मित्रता ||

      नमस्कार मित्रों,

      वह एक छोटी-सी झोपड़ी थी। एक छोटा-सा दिया झोपड़ी के एक कोने में रखा अपने प्रकाश को दूर-दूर तक फैलाने की कोशिश कर रहा था।

      लेकिन एक कोने तक ही उसकी रोशनी सीमित होकर रह गयी थी।

      इस कारण झोपड़ी का अधिकतर भाग अंधकार में डूबा था।

      फिर भी उसकी यह कोशिश जारी थी, कि वह झोपड़ी को अंधकार रहित कर दे।

      झोपड़ी के कोने में टाट पर दो आकृतियां बैठी कुछ फुसफुस कर रही थी।

      वे दोनों आकृतियां एक पति-पत्नी थे।

      पत्नी ने कहा : “स्वामी ! घर का अन्न जल पूर्ण रूप से समाप्त है, केवल यही भुने चने हैं।”

      पति का स्वर उभरा : “हे भगवान ! यह कैसी महिमा है तेरी, क्या अच्छाई का यही परिणाम होता है।”

      “हूं” पत्नी सोच में पड़ गयी। पति भी सोचनीय अवस्था में पड़ गया।

      काफी देर तक दोनों सोचते रहे।

      अंत में पत्नी ने कहा : “स्वामी ! घर में भी खाने को कुछ नहीं है।

      निर्धनता ने हमें चारों ओर से घेर लिया है।

      आपके मित्र कृष्ण अब तो मथुरा के राजा बन गये हैं, आप जाकर उन्हीं से कुछ सहायता मांगो।”

      पत्नी की बात सुनकर पति ने पहले तो कुछ संकोच किया।

      पर फिर पत्नी के बार-बार कहने पर वह द्वारका की ओर रवाना होने पर सहमत हो गया।

      सुदामा नामक उस गरीब आदमी के पास धन के नाम पर फूटी कौड़ी भी ना थी, और ना ही पैरों में जूतियां।

      मात्र एक धोती थी, जो आधी शरीर पर और आधी गले में लिपटी थी।

      ALSO READ  || बच्चों की क्षमताओं व प्रतिभा की कद्र करें ||

      धूल और कांटो से भरे मार्ग को पार कर सुदामा द्वारका जा पहुंचा।

      जब वह कृष्ण के राजभवन के द्वार पर पहुंचा, तो द्वारपाल ने उसे रोक लिया।

      सुदामा ने कहा : “मुझे कृष्ण से मिलना है।”

      द्वारपाल क्रूद्र होकर बोला : “दुष्ट महाराज कृष्ण कहो।”

      सुदामा ने कहा : “कृष्ण ! मेरा मित्र है।”

      यह सुनते ही द्वारपाल ने उसे सिर से पांव तक घुरा और अगले ही क्षण वह हंस पड़ा।

      “तुम हंस क्यों रहे हो” सुदामा ने कहा।

      “जाओ कहीं और जाओ, महाराज ऐसे मित्रों से नहीं मिलते” द्वारपाल ने कहा और उसकी ओर से ध्यान हटा दिया।

      किंतु सुदामा अपनी बात पर अड़े रहे।

      द्वारपाल परेशान होकर श्री कृष्ण के पास आया और उन्हें आने वाले की व्यथा सुनाने लगा।

      सुदामा का नाम सुनकर कृष्ण नंगे पैर ही द्वार की ओर दौड़ पड़े।

      द्वार पर बचपन के मित्र को देखते ही वे फूले न समाये।

      उन्होंने सुदामा को अपनी बाहों में भर लिया और उन्हें दरबार में ले आये।

      उन्होंने सुदामा को अपनी राजगद्दी पर बिठाया। उनके पैरों से काटे निकाले पैर धोये।

      सुदामा मित्रता का यह रूप प्रथम बार देख रहे थे।

      खुशी के कारण उनके आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।

      और फिर कृष्ण ने उनके कपड़े बदलवाये।

      इसी बीच उनकी धोती में बंधे भुने चनों की पोटली निकल कर गिर पड़ी।

      कृष्ण चनो की पोटली खोलकर चने खाने लगे।

      द्वारका में सुदामा को बहुत सम्मान मिला, किंतु सुदामा फिर भी आशंकाओं में घिरे रहे।

      क्योंकि कृष्ण ने एक बार भी उनके आने का कारण नहीं पूछा था। कई दिन तक वे वहा रहे।

      ALSO READ  || क्या ये ही जिन्दगी है ||

      और फिर चलते समय भी ना तो सुदामा उन्हें अपनी व्यथा सुना सके और ना ही कृष्ण ने कुछ पूछा।

      वह रास्ते भर मित्रता के दिखावे की बात सोचते रहे।

      सोचते सोचते हुए वे अपनी नगरी में प्रवेश कर गये। अंत तक भी उनका क्रोध शांत न हुआ।

      किंतु उस समय उन्हें हेरानी का तेज झटका लगा।

      जब उन्हें अपनी झोपड़ी भी अपने स्थान पर न मिली।

      झोपड़ी के स्थान पर एक भव्य इमारत बनी हुयी थी।

      यह देखकर वे परेशान हो उठे। उनकी समझ में नहीं आया, कि यह सब कैसे हो गया। उनकी पत्नी कहां चली गयी।

      सोचते-सोचते वे उस इमारत के सामने जा खड़े हुये।

      द्वारपाल ने उन्हें देखते ही सलाम ठोका और कहा– “आइये मालिक।”

      यह सुनते ही सुदामा का दिमाग चकरा गया।

      “यह क्या कह रहा है” उन्होंने सोचा।

      तभी द्वारपाल पुन: बोला : “क्या सोच रहे हैं, मालिक आइये न।”

      “यह मकान किसका है” सुदामा ने अचकचाकर पूछा।

      “क्या कह रहे हैं मालिक, आप ही का तो है।”

      तभी सुदामा की दृष्टि अनायांस ही ऊपर की ओर उठती चली गयी।

      ऊपर देखते ही वह और अधिक हैरान हो उठे।

      ऊपर उनकी पत्नी एक अन्य औरत से बात कर रही थी।

      उन्होंने आवाज दी : अपना नाम सुनते ही ऊपर खड़ी सुदामा की पत्नी ने नीचे देखा और पति को देखते ही वह प्रसन्नचित्त होकर बोली : “आ जाइये, स्वामी! यह आपका ही घर है।”

      यह सुनकर सुदामा अंदर प्रवेश कर गये।

      पत्नी नीचे उतर आयी तो सुदामा ने पूछा : “यह सब क्या है।”

      पत्नी ने कहा : “कृष्ण! कृपा है, स्वामी।”

      ALSO READ  || बस हो गया भंडारा ||

      “क्या” सुदामा के मुंह से निकला।

      अगले ही पल वे सब समझ गये।

      फिर मन ही मन मुस्कुराकर बोले : “छलिया कहीं का।”

      शिक्षा

      दोस्तों, मित्र वही है जो मित्र के काम आये। असली मित्रता वह मित्रता होती है जिसमें बगैर बताये, बिना एहसान जताये, मित्र की सहायता इस रूप में कर दी जाये कि, मित्र को भी पता ना चले। जैसा उपकार श्री कृष्ण ने अपने बाल सखा सुदामा के साथ किया।

      लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद मित्रों.

      Related Articles

      LEAVE A REPLY

      Please enter your comment!
      Please enter your name here

      Stay Connected

      18,751FansLike
      80FollowersFollow
      720SubscribersSubscribe
      - Advertisement -

      Latest Articles