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      दल-बदल विरोधी कानून का इतिहास | RRD’s Opinion

      दलबदलू मौसम हुआ, राजनीति का दौर जिसको जगह जहा मिली वही बनाया ठौर उपरोक्त पक्तियो से एक बात तो यह स्पष्ट है कि वर्तमान समय का नेता पार्टी की विचारधारा से अलग स्वय के फायदे के लिए पार्टियों में अदला बदली करता रहता है जब तक उसको फायदा मिला वह पार्टी का भक्त बना रहा जब उसे फायदा मिलना बंद हुआ तो वह पाला बदलने में जरा सी भी देरी नहीं लगाता है।

      वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया। साथ ही संविधान की दसवीं अनुसूची जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है को संशोधन के माध्यम से भारतीय से संविधान जोड़ा गया।

      इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की कुप्रथा को समाप्त करना था, जो कि 1970 के दशक से पूर्व भारतीय राजनीति में काफी प्रचलित थी। कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है।

      यदि सदन के अध्यक्ष के दल से संबंधित कोई शिकायत प्राप्त होती है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है। कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दल-बदल पर भी अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकेगा।

      दल-बदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों। ऐसे में न तो दल-बदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर।

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      इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को इस कानून से छूट प्राप्त है। दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

      1985 से पूर्व कई बार यह देखा गया कि राजनेता अपने लाभ के लिये सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होकर सरकार बना लेते थे जिसके कारण जल्द ही सरकार गिरने की संभावना बनी रहती थी। ऐसी स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव आम लोगों हेतु बनाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ता था।

      दल-बदल विरोधी कानून ने सत्ताधारी राजनीतिक दल को अपनी सत्ता की स्थिरता के बजाय विकास संबंधी अन्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रेरित किया है। लोकतंत्र में संवाद की संस्कृति का अत्यंत महत्त्व है, परंतु दल-बदल विरोधी कानून की वज़ह से पार्टी लाइन से अलग किंतु महत्त्वपूर्ण विचारों को नहीं सुना जाता है।

      अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि इसके कारण अंतर-दलीय लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है और दल से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है। जनता का, जनता के लिये और जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है।

      लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। कई विशेषज्ञ यह भी तर्क देते हैं कि दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्रों में दल-बदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है।

      उदाहरण के लिये इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यदि जनप्रतिनिधि अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, तो भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं। राजनीति में अधिकतर नेता दल-बदल विरोधी कानून की खामियों का फायदा उठा रहे हैं।

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      यह सब “आया राम गया राम” अभिव्यक्ति के साथ शुरू हुआ, जिसने हरियाणा के विधायक गया लाल द्वारा एक ही दिन में तीन बार पार्टियां बदलने के बाद भारतीय राजनीति में लोकप्रियता हासिल की।

      यह 1967 में हुआ था। संसद ने इस मामले का उपयोग भारतीय संविधान में 10वीं अनुसूची को जोड़ने को उचित ठहराने के लिए किया। यह कानून सदन के किसी अन्य सदस्य की याचिका के जवाब में विधायिका के पीठासीन अधिकारी द्वारा सांसदों को दलबदल के लिए अयोग्य घोषित करने की प्रक्रिया स्थापित करता है।

      ये नेता पार्टी समर्थक राजनीति को एक नौकरी की तरह मानते हैं। वे किसी भी एक दल में तब तक ही रहते हैं जब तक वहां रहना उनके अनुकूल होता हो। ऐसा नहीं होने पर वे तुरंत पाला बदल लेते हैं।

      दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है?

      साथ ही वह जिस दल को छोड़ते हैं और जिससे जुड़ते हैं उन दोनों की सिरदर्दी बढ़ाते हैं।

      Rahul Ram Dwivedi (RRD) is a senior journalist in 2YoDoINDIA.
      NOTE : Views expressed are personal.

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