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      || आंगन ||

      आंगन

      संध्या से ही बिछ जाती थीं खाटें घर के आंगन में,
      तारों भरा आकाश देखने,कब लेटें रहता मन में ।

      बहुत नहीं बीते होंगे बस चालीस से पचास बरस,
      ग्रीष्म ऋतु की रातें रहती थीं तब थोड़ी अधिक सरस ।
      बड़े बुजुर्गों द्वारा सुनते कथा,कहानी प्रहसन में,
      संध्या से ही बिछ जाती थीं खाटें घर के आंगन में ।

      ऊपर तारे नीचे जुगनू,कितने दृश्य सुहाने थे,
      सभी पड़ोसी एक दूसरे से तब रिश्ता मानें थे,
      टेर-टेर कर दुख-सुख पूछें,कितना सुख था जीवन में,
      संध्या से ही बिछ जाती थीं खाटें घर के आंगन में ।

      तुलसी की भीनी सी महक के संग थी जूही चमेली भी,
      रात की रानी गमक फेंकती बन खुशबू की ढेली भी ।
      नींद लगी तो भी रहती थी प्रकृति हर क्षण दर्शन में,
      संध्या से ही बिछ जाती थीं खाटें घर के आंगन में ।

      आज सभी सोते हैं कूलर और ए.सी.में टेस में,
      घुसे रोग अस्थि पीड़ा व श्वास दमा के भेस में ।
      ना करते व्यवहार पड़ोसी पहले से अपनापन में,
      संध्या से ही बिछ जाती थीं खाटें घर के आंगन में ।

      नहीं बचा कवि सृजन में अब वो पहले जैसा पैनापन,
      नहीं मल्हार से नेह बरसता नहीं संगीत में वो बंधन ।
      और
      नहीं बची प्राकृतिक सुवास अब जीवन के अभिनन्दन में,
      संध्या से ही बिछ जाती थीं खाटें घर के आंगन में ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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