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      || दत्तक पुत्र ||

      ‘तो हम क्या करें, पापा? मैंने आपको सारी समस्याएं पहले ही बता दी हैं। ’मुकेश ने अपने पिताजी की ओर देखा।

      ‘जानता हूँ, बेटा। लेकिन, जब समस्याएँ होती हैं, तो समाधान भी होते हैं।’ इंद्रजीत शर्मा (मुकेश के पिताजी) ने अपनी शाम की चाय का एक घूँट लेते हुए कहा।

      ‘हमने समाधान करने की भी तमाम कोशिशें की हैं। बारह सालों से हम लगातार डॉक्टरों के पास जा रहे हैं और इलाज ले रहे हैं। फिर भी अनीता गर्भधारण नहीं कर पा रही है, तो हम क्या कर सकते हैं?’ झल्लाते हुए मुकेश बोला।

      ‘मैं तुम्हारे साथ पूरी तरह से सहमत हूँ। लेकिन…’

      ‘हमने IVF भी करवाया है। आपको शायद पता न हो लेकिन इतनी दर्दनाक प्रक्रिया है ये…’ मुकेश ने अपनी आंखें बंद कर लीं और उन छणों को याद करके सिर हिलाने लगा।

      ‘मैं सब जानता हूँ, बेटा। तुम्हें मुझे कुछ बताने की जरूरत नहीं है। मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि अभी भी एक रास्ता है।’

      ‘कौन सा?’ मुकेश ने अपने पिताजी की ओर देखा।

      इंद्रजीत ने अपनी चाय का एक और घूँट लिया और बोले।

      ‘गोद लेना। तुम एक बच्चा गोद ले सकते हो।’

      ‘आप पागल हो गए हैं क्या, पापा?’

      ‘इसमें पागल होने जैसी क्या बात है?’ इंद्रजीत ने पूछा।

      मुकेश ने हाथ में लिए अखबार को सामने रखी मेज पर फेंका और सामने सोफ़े पर बैठ गया।

      ‘तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया, बेटा,’ इंद्रजीत ने कहा।

      ‘मैं किसी और के बच्चे को स्वीकार नहीं कर सकता। मुझे कैसे पता चलेगा कि उस बच्चे का खानदान क्या है! जात-पांत क्या है। कैसा खून है।’ मुकेश सोफे पर पीछे होकर दोनों हाथों से अपने चेहरे को सहलाने लगा।

      ‘हम ये स्वेच्छा से नहीं कर रहे हैं। क्योंकि हमें इस घर में एक बच्चा चाहिए और ये स्वाभाविक तौर पर नहीं हो पा रहा है।’

      ‘तो हम एक बच्चा गोद ले लें?’ मुकेश ने अपने पिताजी की ओर गुस्से से भरी नज़रों से देखा। ‘नहीं, पापा। अगर कोई बच्चा इस घर में आता है, तो वह मेरा खून होगा। वरना, हम ये स्वीकार कर लेंगे कि माता-पिता बनना हमारे भाग्य में नहीं है।’

      ‘इतना नकारात्मक मत बनो, बेटा। मैं ये सब इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इसमें मेरा भी स्वार्थ है। मैं अपने अंतिम कुछ वर्ष अपने पोते-पोतियों के साथ बिताना चाहता हूँ। तुम्हारी माँ के जाने के बाद से मैं बहुत अकेला महसूस करता हूँ।’ इंद्रजीत की आंखें डबडबा आयीं और गला रुंध गया।

      ‘मैं आपकी भावनाओं को समझता हूँ, पापा।’ मुकेश ने अपने पिताजी के हाथों को अपने दोनों हाथों के बीच ले लिया और उनकी आँखों में देखा। हालाँकि, इंद्रजीत नीचे देख रहे थे। ‘लेकिन, प्लीज, आप भी मेरी भी भावनायें समझने का प्रयास कीजिये। हमें कुछ साल और कोशिश करने दीजिये। प्लीज!’

      इंद्रजीत ने अपनी आंसुओं से भरी आँखों से अपने बेटे की आँखों में देखा और मुस्कुराते हुए हामी भर दी। एक आंसू की बूँद चेहरे की झुर्रियों के रास्ते, सफ़ेद हो चुकी दाढ़ी के कुछ बालों को भिगोती हुई नीचे ज़मीन पर गिर गई।

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      एक और साल बीता लेकिन मुकेश पिता न बन सका। फिर उसने और उसकी पत्नी ने सरोगेसी (किराये की कोख) के विकल्प पर विचार करना शुरू किया। उसके रिश्तेदारों में से एक महिला ने मुकेश के लिए सरोगेट मां बनने के लिए सहमति दे दी। लेकिन उसी दौरान उसके पिता इंद्रजीत बीमार पड़ गए। बुखार उनके शरीर को दीमक की तरह चाटने लगा।

      एक शाम उनकी सांस अनियमित हो गई। डॉक्टर ने मुकेश को बताया कि उसके पिता अपने अंतिम समय में थे। मुकेश बहुत करीब था अपने पिता से। और माँ के जाने के बाद वो और भी करीब आ गया था उनके। वो अपने पिता के पास उनका हाथ अपने हांथों में लेकर बैठा हुआ था।

      ‘पापा…’ रुंधे गले से उसने तीसरी बार आवाज़ लगाई। इंद्रजीत ने आँखें खोली और अपने बेटे की आँखों में देखा। फिर उनका मुँह धीरे से खुला। शायद कुछ कहना था उनको। लेकिन कुछ नहीं बोल सके। मुकेश की पत्नी ने उनके मुंह में गंगाजल की कुछ बूँदें डालीं। इंद्रजीत की बाएं आंख में एक छोटी सी आंसू की बूंद उभरी और पोर से नीचे लुढ़क गई।

      ‘पापा, उठो। आपको पता है, बहुत जल्द आप दादा बनने वाले हैं।’ मुकेश ने पिता का हाथ सहलाते हुए कहा। उसके रुंधे गले से शब्द निकाले न निकलते थे। उसकी पत्नी भी उसके पास बैठी थी। इंद्रजीत मुस्कुराना चाहते थे लेकिन उनके होंठ उनका साथ नहीं दे रहे थे। इसी जद्दोजहद में एक आंसू और उनकी आंख में आया और एक बार फिर से नीचे लुढ़क गया। उनका मुंह खुला रह गया और आँखें भी। कभी न बंद होने के लिए।

      ‘पापा…’ मुकेश ने अपने पिताजी को हिलाया। लेकिन वो अब कहाँ थे। उसने हारे मन से कई बार कोशिश की। लेकिन पंछी तो उड़ चुका था, पुराने, जर्जर हो चुके पिंजरे को छोड़। मुकेश दहाड़ मार कर रोया किसी बच्चे की तरह जिसका सबसे प्यारा खिलौना टूट गया हो। उसका विलाप देखकर उसकी पत्नी भी फूट-फूट कर रोने लगी।

      अगले हफ्ते तक कई रिश्तेदार मुकेश और उसकी पत्नी से मिलने और उन्हें सांत्वना देने आते रहे। तेरहवीं को एक व्यक्ति ने अपना परिचय मुकेश के पिता के मित्र के रूप में दिया। उसने अपना नाम केशव बताया। सारे मेहमान जाने के बाद वो काफी देर तक मुकेश से बात करता रहा। मुकेश का मन भी कुछ हल्का हुआ।

      ‘इंद्रजीत और मैंने इंटरमीडिएट तक साथ में पढ़ाई की थी। हम सबसे अच्छे दोस्त थे।’

      ‘हाँ, पापा ने एक-दो बार आपकी चर्चा की थी।’ मुकेश ने कहा।

      ‘उसके बाद मुझे एक बैंक में नौकरी मिल गयी, और इंद्रजीत एक शिक्षक बन गया।’ केशव ने गहरी साँस ली। ‘मैं दिल्ली चला गया और वह लखनऊ आ गया। फिर कई सालों तक हम संपर्क में नहीं रहे। वो तो भला हो हमारे एक अन्य मित्र का जिससे मुझे इंद्रजीत का नंबर मिला और हम फिर से संपर्क में आ गए।’

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      मुकेश ने सिर हिलाया। उसे केशव अंकल की बातें अच्छी लग रही थीं।

      ‘भाभी जाने के बाद, वो अक्सर मुझे फ़ोन कर लिया करता था। वो भाभी को बहुत याद करता था। और ये भी कहता था कि वह अपने आखिरी कुछ वर्ष अपने पोते पोतियों के साथ खेलते हुए बिताना चाहता था।’

      मुकेश ने ध्यान से उनकी तरफ देखा। उसे भी इस बात का बड़ा मलाल था कि वो पिता की आखिरी इच्छा पूरी नहीं कर सका।

      ‘बल्कि कई बार वो मुझसे ये भी पूछा करता था कि अगर दिल्ली में कोई अच्छा स्त्री-रोग विशेषज्ञ डॉक्टर हो तो बताओ।’

      ‘तो, आपने क्या कहा?’ मुकेश ने पूछा।

      ‘मैंने उसे कुछ नाम बताए। लेकिन…’

      ‘लेकिन क्या?’

      ‘फिर उसने कभी इस विषय पर बात नहीं की। मैंने भी बार बार पूछना उचित नहीं समझा।’ केशव ने कहा। ‘जब मैंने पिछले हफ्ते यह खबर सुनी, तो मैंने तय किया कि उसकी तेरहवीं में जरूर जाऊंगा।

      ‘धन्यवाद, अंकल। आप दोनों बेशक सबसे अच्छे दोस्त थे। वरना, कौन ज़िंदा लोगों की परवाह करता है, मरे हुए की तो बात ही छोड़िये!’

      केशव बड़े ध्यान से मुकेश की तरफ देख रहा था । ‘क्या तुम लोगों ने कभी किसी बच्चे को गोद लेने का विचार किया? अगर तुमने इस विकल्प पर विचार किया होता, तो इंद्रजीत की आखिरी इच्छा पूरी हो जाती।’

      मुकेश को केशव अंकल की इस बात से बड़ी हैरानी हुई। इतने व्यक्तिगत मुद्दे पर वो कैसे उससे इतने प्रत्यक्ष रूप से बात कर सकते थे। उसे ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आयी।

      ‘मेरे ख्याल से ये बहुत व्यक्तिगत मसला है, अंकल। इस पर बात करना मैं ठीक नहीं समझता।’ उसने कहा।

      ‘हाँ, मानता हूँ। लेकिन इंद्रजीत ने मेरे साथ एक बार इस विषय पर चर्चा छेड़ी थी। उसने ये भी बताया था कि तुम इसके लिए तैयार नहीं थे।’

      ‘हो सकता है पापा ने ये सब बातें आपसे कही हों क्योंकि आप दोनों अच्छे दोस्त थे।’ मुकेश ने केशव अंकल की तरफ देखते हुए कहा। ‘हम नहीं हैं, अंकल।’

      ‘उसने मुझसे कहा था कि तुम किसी और के बच्चे को स्वीकार नहीं कर सकते।’

      ‘अंकल, कृपया बंद करो ये सब! यह सच में बहुत ही व्यक्तिगत है मेरे लिए। मेरे ख्याल से अब आपको निकलना चाहिए।’

      ‘किसी बच्चे को गोद लेने में क्या बुराई है?’

      मुकेश अपनी जगह खड़ा हो गया और इशारों में केशव को भी खड़ा होने के लिए कहा। ‘देखिये, मैं आपकी इज़्ज़त कर रहा हूँ क्योंकि आप पापा के दोस्त हैं। लेकिन मेरा आपसे किसी भी तरह का प्रवचन सुनने की कतई इच्छा नहीं है।’

      ‘अगर इंद्रजीत ने भी तुम्हारी तरह सोचा होता…’ केशव कुछ छण के लिए रुका और फिर बोला, ‘तो तुम्हे पापा शब्द का अर्थ तो पता होता लेकिन तुम्हारे पास पापा बोलने के लिए कोई नहीं होता।’

      मुकेश के मानो पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसका दिल धक् से बोला। आँखों में लाल धागे उभर आये और होंठ कंपकपाने लगे। कुछ मिनटों तक वो समझ ही नहीं पाया कि क्या कहे।

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      ‘क्या…क्या… बकवास… है ये। आपकी हिम्मत कैसे हुई मुझसे ये बकवास करने की। कौन हो तुम। कोई बहुरुपिया। तुम खुद को पापा को सबसे अच्छा दोस्त कहते हो? और ये बर्ताव है तुम्हारा उनके बेटे के साथ। निकल जाओ यहाँ से इससे पहले कि मेरे हांथों से कोई अनर्थ हो जाए।’

      मुकेश कहते कहते चक्कर खा ज़मीन पर गिर पड़ा। उसकी पत्नी दौड़ के उसके पास गई और उसको उठाने लगी।

      केशव ने सामने रखे पानी के ग्लास से मुकेश को पानी पिलाया।

      थोड़ी देर बाद मुकेश को होश आया तो केशव ने कहा, ‘अपना ध्यान रखो, बेटा। मैं निकलता हूँ। शायद मुझे तुम्हे सच नहीं बताना चाहिए था। इंद्रजीत ने भी तो जीते जी तुम्हे सच का पता न चलने दिया।’

      कांपते हुए होंठों से मुकेश बड़बड़ाया, ‘कृपा करके कह दें जो कुछ भी आपने कहा वो सब झूठ है।’

      ‘काश कि मैं कह सकता।’

      मुकेश की पत्नी ने सहारा देकर उसे सोफे पर बिठाया। उसकी आँखों से आंसू धारा प्रवाह बह रहे थे। उसकी पत्नी ने उसे पानी का ग्लास दिया। उसे सामान्य होने में कुछ समय लगा। ‘अब जो भी सच है वो आप पूरा-पूरा बताएं।’

      केशव अंकल ने फिर से बोलना शुरू किया, ‘इंद्रजीत और भाभी का एक बेटा था जो गुजर गया जब वो केवल एक साल का था। फिर एक महीने बाद, वो लोग सुबह-सुबह शिव जी के मंदिर गए, वहां उन्होंने मंदिर के प्रवेश द्वार पर जमा भीड़ देखी। पूछने पर पता चला कि किसी ने मंदिर की सीढ़ियों पर एक नवजात शिशु को छोड़ दिया था। इंद्रजीत ने तुरंत पंडित जी से बात की और उस बच्चे को गोद लेने की इच्छा जाहिर की। पंडित जी इंद्रजीत और भाभी को बहुत समय से जानते थे और इसलिए उन्होंने उस बच्चे को उन्हें दे दिया।’

      मुकेश का चेहरा पसीने से भीगा हुआ था। उसने अपने रुमाल से अपना चेहरा पोंछा।

      ‘बताने की जरूरत नहीं है कि वो बच्चा तुम थे।’ केशव ने अपनी बात पूरी की।

      ‘पापा और मम्मी ने मुझे गोद लेने के बाद और बच्चे पैदा करने की कोशिश नहीं की?’ मुकेश ने पूछा।

      केशव ने इंकार में सर हिलाया। ‘वे तुम्हारे साथ इतने खुश थे कि उन्हें किसी और बच्चे की जरुरत ही महसूस नहीं हुई। हालांकि वो चाहते तो कर सकते थे।’

      मुकेश ने केशव अंकल के दोनों हाथ पकड़ कर उनको अपने माथे से लगा लिया और वहीँ ज़मीन पर बैठ गया। रह रह कर उसे अपने देवता तुल्य पिता का चेहरा याद आता रहा और वो सुबकता रहा। उसे खुद पर क्रोध भी आता रहा और खुद से नफरत भी होती रही। जिस पिता ने उस जन्मतः अनाथ को कभी उसका सच ही न पता चलने दिया, वो ही उनकी आखिरी इच्छा पूरी न कर सका।

      एक सप्ताह बाद, मुकेश अपनी पत्नी के साथ एक अनाथालय पहुंचा और वहां के प्रबंधक से कहा, ‘हम एक बच्चा गोद लेना चाहते है, सर।’

      — लेखक : सरस आज़ाद

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