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      || बालश्रम और हम ||

      बालश्रम और हम

      निर्झर सरोवर पर हो जैसे जम गई काई,
      या किसी समतल जमीं के बीच हो खाई।

      वैसे ही बालश्रम हमारे माथे का कलंक,
      उत्कृष्ट सभ्यता में छद्म सेंध समाई।

      समाज रूपी देह पर रिसता हुआ फोड़ा,
      नैतिकता के सफे पे जैसे फैली सियाही।

      शुभ्र चन्द्रमा ललाट पर हो तुच्छ दाग,
      ज्यों उन्नति की दीपशिखा हो धराशाई।

      पढ़ने की उम्र में करें श्रम देश के बच्चे,
      स्वतंत्रता के हार की कली ज्यों मुरझाई।

      बस्ते की जगह पीठ पर बोझा लिये बच्चे,
      सभ्यता की आंख में ज्यों धूल भर आई।

      खेलने की उम्र में रोटी की हो चिन्ता,
      धिक्कार है उस देश पर, उस राष्ट्र पर भाई।

      हरे भरे उपवन की शोभा लीलती लपटें,
      आकाश तारा जड़ित पर बदली उतर आई।

      इस हेतु जो कर्तव्य पथ पर हम निकल पड़ें,
      समझो हमारी फसल पाले से निकल आई।

      समझो कि हम मझधार से बचकर चले आये,
      समझो हमारी मति भ्रम से बच निकल आई।

      जागें हमारे बुद्धिजीवी लोग और नेता,
      जागे हमारे राष्ट्र की अनमोल तरुणाई।

      सब बागवान बन खिलायें फूल अनखिले,
      हो सृष्टि में बचपन सुगंध युक्त पुरवाई।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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