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      || गर ये प्यारी रात न होती ||

      गर ये प्यारी रात न होती

      सोचो कैसा नीरस लगता गर ये प्यारी रात न होती,
      हर पल सूरज तपता रहता तारों की बारात न होती ।

      सुबह की शीरीं सी खुशबू दिलकश शाम कहां से आती,
      चर्चे होते आसमान के चांद की फिर भी बात न होती ।

      माना समय बीतता जाता घण्टे मन्दिर में भी बजते,
      पूजा, दिया,आरती जैसी रस्में मय-जज्बात न होती ।

      सुबह की चींची चिड़ियों की ठंडी मीठी हवा न मिलती,
      चम-चम चांद से आने वाली किरणों की बरसात न होती ।

      काम सदा करते हम रहते जीवन जीते बिल्कुल आधा,
      मीठी नींद के सपनों से भी अपनी तो मुलाकात न होती ।

      चेहरे पर सुबह की सुन्दरता आ पाती ना कभी ताजगी,
      आशिक तो होते दुनियां में आशिकी खुश-हालात न होती ।

      शबनम ना मिलती फूलों पर रात की रानी कहते किसको,
      सूरजमुखी भला क्यों खिलते,भीनी सी परभात न होती ।
      शम्मा परवानों की महफिल भला कहां मुमकिन हो पाती,
      साकी और सुराही होते मय नगमों के साथ न होती ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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