आज राह में देखी मैंने लड़की इक फुलवारी सी,
फटा था ब्लाउज,चिंदी साड़ी,मुखाकृति उजियारी सी ।
सड़क किनारे झोपड़ पट्टी के आंगन में बैठी थी,
बना रही थी सूपा,टुकनी पलक लगी कुछ भारी सी ।।
बड़े चाव से बांस की छीलन को आकार दिया उसने,
शिल्पी जैसे सुन्दरता को ज्यों उपहार दिया उसने,
आवश्यकता अनुरूप रूप देती थी वो ना थकती थी,
कहीं मोटी पतली छीलन भर रूप संवार दिया उसने ।।
मन भर के टुकना से लेकर पूजा की डलिया तक थी,
गमले,गुलदस्ते से लेकर छोटे बच्चों की चरखी ।
बना बनाकर सभी वस्तुऐं बाजू में रख लेती थी,
हर आने जाने वाले का पल में मन भर लेती थी ।।
आधा पहर लगाकर उसने इक गुलदान बनाया था,
शाम को उसका मूल्य वही बस पांच रुपल्ली पाया था ।
बीस रुपये की चीज के बदले पांच रुपये वो पाती थी,
उसी पांच रुपये से उसने संध्या का चूल्हा जलाया था ।।
क्या होता जो मिल जाती सुविधा उसको अनुरूप कहीं,
हो जाती विख्यात कला में भरती सुन्दर रूप कहीं ।
सही दिशा में कला को उसकी रास्ता मिल जाता शायद,
खिल जाती तब कला कली मिलती जो हल्की धूप कहीं ।।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
READ MORE POETRY BY PRABHA JI CLICK HERE
DOWNLOAD OUR APP CLICK HERE