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      || आशु-वाणी (मुक्तपदी कवितायें) ||

      आशु-वाणी

      (1)

      अंधकार के घर सूरज का पहरा है।
      चाल-चलन हो गया यहाँ पर दोहरा है।।

      बात बड़ी तो छोटका भी कह सकता है,
      पर छोटे मुँह की कौन यहाँ पर सुनता है ?

      जिनके पैरों पड़े कभी न छाले हैं,
      वे कहते सदियों से हम पीड़ा पाले हैं।

      भाग-दौड़ कर नाप दिये चौरासी कोस यहाँ पर हमने,
      वे कहते- बाल सफेद तुम्हारे नहीं हुये मेरे जितने।

      सुनने को मिथ्या गुणगान यहाँ पर लोग हो गये आदी हैं।
      दो टूक सत्य बोलने के कारण बस उसकी बर्बादी है।।

      उसने तो मुझ पर कीचड़ खूब उछाला है,
      ‘आशु’ कीचड़ उछाल अपने हाथ नहीं सानने वाला है।

      वे हमको उल्लू समझ-समझ कर अपना उल्लू सीधा करते हैं,
      हम फितरत उनकी समझ-बूझ कर भी नासमझ बने रहते हैं।

      उनका मकसद केवल अपना उल्लू सीधा करना है।
      अपना स्वभाव उल्लू बनकर भी सम्बन्धों को जीना है।

      (2)

      सिद्धान्त यहाँ बिकते हैं सरेआम बाजारों में।
      समाचार सब सही नहीं हैं, जो छपते अखबारों में।।

      सजा यहाँ अक्सर ही मिलती है झूठ कबूलवाने में।
      सबके सब दोषी नहीं यहाँ, जो बन्द पड़े हैं जेलखाने में।।

      भाड़े के भी लोग यहाँ मिल जाते हैं भीड़ जुटाने में।
      जयकारे होते नीलाम, मोहरें मिलतीं राज छुपाने में।।

      चमत्कार का नमस्कार है, दिल का मिलना नहीं जरुरी हाथ मिलाने में।
      कहने को तो और बहुत कुछ, पर भला कभी-कभी चुप रह जाने में।।

      (3)

      सियासी लोग तुम पर सियासत करते हैं।
      ऐ गरीबों ! कह दो-गरीबी है, गरीब नहीं हूँ।

      अमीरी से हमें कोई गिला-शिकवा नहीं।
      हमने हमेशा इसकी जड़ों को सींचा है।

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      तुम्हारी अमीरी तुमको मुबारक हो !
      हम बाजार में नींद नहीं खरीदा करते।

      मुद्दा गरीबी का कोई रहनुमा उठाये, न उठाये,
      मगर मगरमच्छी आँसू बहाये न मजाक उड़ाये।

      झोपड़ी के मुकाबले महलों में कहाँ दम है ?
      झोपड़ी की भूख, महलों की हविश से कम है।

      झोपड़ी की मस्ती से महलों का मुकाबला नहीं होता।
      दरियादिली न हो, तो अमीरी का कोई मतलब नहीं होता।

      (4)

      अब इस शहर में यों कत्ल होने लगे-
      मानो खुदा खुद डरने-सहमने लगे।

      इन्सानियत को हद से नीचे गिरता देख,
      बाबा तुलसी की चौपाई पढ़ने लगे।

      खुदगर्ज आदमी खुदा को भूल गया जबसे,
      हमारे शहर में मवेशी इबादत करने लगे।

      हवा में उड़कर दूरियाँ तो कम कर लीं,
      मगर दिलों के फासले यहाँ बढ़ने लगे।

      (5)

      खबर सरकारी यूँ छपी किसी अखबार में,
      सोंचता हूँ- अखबार में छपी या इश्तहार में ?

      कलम कोई बिक गई यहाँ बाजार में ।
      पता चला – बाजार भी बिक गया दरबार में।

      गमेहालात के आँसू तो बहे धार में,
      किसी ने कहा- ये हैं खुशी के इजहार में।,

      वक्त बीत गया वक्त के इंतजार में।
      खुशी बाँटी गई यहाँ इश्तहार में।

      जिन्दगी बनी पहेली जीत में न हार में।
      साहूकार बन गये यहाँ उधार में।

      लेखक
      श्री विनय शंकर दीक्षित
      “आशु”

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