समय के साथ चलना ही चाहिए, हाईटेक होना ही चाहिए लेकिन एक सच ये भी है कि आधुनिकता की आंधी ने रिश्तों की जड़ों को खोखला कर दिया है। एक वक्त था जब घरों में इनवर्टर नहीं हुआ करते थे, बहुत बाद में इक्का दुक्का घरों में लगने लगे थे। गर्मी के दिनों में जब लाइट चली जाती थी तो मोहल्ले की सभी छतें गुलज़ार हो जाती थी।
शाम से ही लोग अपने अपने घरों की छतों को धोना शुरू कर देते थे।
घर के छोटों की बाकायदा ड्यूटी लगती थी। फिर बिस्तर बिछाने का काम होता था।
लैंप और इमरजेंसी लाइट की रोशनी में पढ़ाई का दौर होता था, चाय पीने का, खाना खाने का दौर हुआ करता था, छतों से सब्जियों का लेन देन होता था, ये सब पड़ोसियों से रिश्तों को और मजबूत करता था।
उस वक्त पड़ोस में आने वाली मौसी मोहल्ले के हर बच्चे की मौसी थी, फूफा पूरे मोहल्ले के बच्चों के फूफा था, सब्ज़ी खरीदने भी मोहल्ले के लोग साथ साथ जाया करते थे।
आस पड़ोस की छतों पर बैठे लोग अंताक्षरी खेलते थे।
उस वक्त के संवाद भी गजब होते थे।
अभी नीचे ना जाओ, लाइट अभी फिर जाएगी
देखा कहा था ना, चली गई
अच्छा बत्ती वाला दोहा पढ़ो सब लोग तो लाइट आ जाएगी
पांच फल, पांच गंज, पांच पुर, पांच कुंआ, पांच तालाब के नाम लेव तो हवा चलेगी
छत पर लेटे लेटे आसमान के तारों को गिनने की कोशिश, हल्की सी आहट पर पूरे मोहल्ले का जाग जाना
वो मुंहनोच्वा की दहशत का दौर
ये सब आज कहां मिलेगा, खुद सोचिएगा आखिरी बार छत पर खाना कब खाया था, आखिरी बार छत पर कब सोए थे, आखिरी बार पड़ोसी के घर से मांग कर कौन सी सब्ज़ी खाई थी
दरअसल दूरी तो छतों से आई है लेकिन दरारें रिश्तों में आ गई हैं।
मोहल्ले की गलियों में अब कहां बर्फ पानी, आइस पाईस, पकड़म पकड़ाई, ऊंच नीच, खो खो, कोड़ा बादाम छू पीछे देखे मार छू का शोर है…..अब कहां हत्थी पकाई जाती है।
सच बताऊं इस शोर में, इस छतों वाली चकल्ल्स में ही अपनापन था, जिंदगी थी, अब तो हम बस दौड़ रहे हैं… ठहराव से भरा सुकून अब नहीं है।
फिर भी, कोशिश करिएगा किसी दिन अपनी कोई शाम छत के नाम करने की।