पर्यावरण विलाप
गूंगे बहरे हो गये निश्चित हम और आप,
सुनने में असमर्थ हैं पर्यावरण विलाप ।
हुईं हवायें विषभरी बहु रोगों की खान,
श्वास’दमा,क्षय रोग की हर घर से पहचान,
प्राण वायु कहते जिसे, देने लगी है श्राप,
सुनने में असमर्थ हैं पर्यावरण विलाप ।
शुद्ध जल अब हो रहा धीरे-धीरे लुप्त,
जनसाधारण उदासीन और प्रशासन सुप्त,
मात्र दिखावा हो रहा,झूठा राग अलाप,
सुनने में असमर्थ हैं पर्यावरण विलाप ।
जंगल में मंगल नहीं, पड़ी है काटमकाट,
आगे-आगे धर रहा सूखा रूप विराट,
मौसम उल्टे हो रहे,पूजा करो या जाप,
सुनने में असमर्थ हैं पर्यावरण विलाप ।
बन रहा हर राष्ट्र अब हाइड्रोजन अणु बम,
शांति,संधि, वार्ता किसी में नहीं है दम,
जापान अपाहिज पीढ़ियों, किसको पश्चाताप,
सुनने में असमर्थ हैं पर्यावरण विलाप ।
रक्षा छतरी का बड़ा होता जाता छेद,
हर दिन अधिकाधिक रहें, हम सब उसको भेद,
सीमा नहीं विनाश की संभव कहां लें नाप,
सुनने में असमर्थ हैं पर्यावरण विलाप ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
READ MORE POETRY BY PRABHA JI CLICK HERE
DOWNLOAD OUR APP CLICK HERE