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      || रश्मि ||

      रश्मि

      लगभग 12 वर्ष पूर्व मुझे रश्मि के विवाह का निमंत्रण पत्र मिला था। रश्मि, रिश्ते में मेरी बहन की बेटी थी। रश्मि ने अभी मात्र दसवीं पास की थी। देखने में गोरी, नाजुक व सौम्य आकर्षक नाक-नक्शे की स्वामिनी, राजकुमारी जैसी लगती थी। इतनी जल्दी दीदी उसका विवाह क्यों कर रही हैं? अभी तो उसे पढ़ना चाहिये था। ऐसे कई भाव मन में आये और मैं रश्मि के विवाह में शामिल होने की तैयारी में जुट गई। मेरी बहन की शादी पंजाब में हुई थी। अतः स्वाभाविक ही पंजाब जाने में रिजर्वेशन आदि की झंझटें भी थीं। विवाह में मात्र 15 दिन शेष थे।

      देखते ही देखते पंद्रह दिन गुजर गये और मैं अपने परिवार के साथ रश्मि के विवाह में शामिल होने पंजाब पहुंच गई किन्तु बार-बार मैं सोचती अभी तो रश्मि बच्ची है उसका विवाह दीदी जल्दी कर रही हैं। जैसे ही मौका मिला मैने अपनी उत्सुकता जाहिर करते हुए दीदी से पूछ लिया “दीदी आपको रश्मि के विवाह की इतनी क्या जल्दी थी आपके दोनों बेटों व दो बेटियों की शादी हो चुकी है अब तो मात्र रश्मि रह गई थी” ।

      दीदी ने जवाब दिया “एक रिश्तेदार ने अच्छा लड़का बताया सो मैंने सोचा हाथ से न जाये, दूसरे रश्मि की सुंदरता उसकी दुश्मन है। जहाँ जाती है लड़के भंवरों जैसे मंडराने लगते हैं। कहाँ तक दुनिया से छिपाऊँ सो अच्छा लड़का मिलते ही मैंने अपनी जिम्मेदारी निभाना ही ठीक समझा”। मैं चुप हो गई घर में मंगल गीत चल रहे थे। नाच-गाना शहनाई वादन सभी विवाह को भव्य बना रहे थे।

      “हर बाबुल की ये हसरत है, कब बैठे बेटी डोली में
      शहनाई का संगीत बजे, भर दे खुशियाँ सब झोली में।”

      जीजाजी व दीदी ने दिल खोलकर खर्च किया। बारातियों स्वागत से लेकर दान-दहेज तक बढ़िया से बढ़िया दिया । लड़का देखने में अच्छा लगा, ज्यादा कुछ जाँच पाना विवाह की भीड़भाड़ में संभव नहीं हुआ। विवाह की सभी रस्मों के बाद रश्मि बिदा होकर ससुराल चली गई। विदाई के समय धीमा संगीत रश्मि के मन की दशा दर्शाते हुए पीहर के लिये दुआओं की झड़ी लगा रहा था।

      “बाबुल तेरे आंगन में, खुशियाँ बरसती हो,
      बेला हो चमेली हो, संग चंपा महकती हो,
      तेरे घर से जब आये बस ठंडी हवा आये,
      तेरे घर से जब गुजरें, पुरवाइयाँ गुजरती हों।

      मैं वापस अपने घर आ गई।

      लगभग डेढ़ साल बाद मेरे मायके में भतीजे की शादी पर दीदी, रश्मि और उसके पति से मिलना हुआ। रश्मि की ससुराल में कैसी निभ रही है पूछने पर दीदी ने बताया कि रश्मि के पति को रतौंधी है अर्थात रात में बहुत ही कम दिखता है। नौकरी-धंधा भी तरीके से नहीं करता है। दिमाग भी कुछ कम है। बस देखने भर में ठीक-ठाक है।

      अपने बेटे की कमजोरी, रश्मि की सास जानती है इसलिये वह रश्मि पर बेमतलब के लांछन लगाती रहती है, दिनभर घर का काम नौकरानी जैसा कराती है।

      जिस दूर के रिश्तैदार ने रश्मि की शादी लगाई थी वह रश्मि के ससुराल का पड़ौसी है वह स्वयं रश्मि को आकर्षित करने की कोशिश में लगा रहता है। रश्मि बहुत दुःखी हो गई है। हमने वास्तव में जल्दी विवाह करके रश्मि की जिंदगी में जहर घोल दिया है वगैरह-वगैरह। दीदी दो बजे रात तक अपना और रश्मि का रोना रोती रही, मैं और मेरी आत्मा सुलगती रही।

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      मायके में शादी के बाद परिवार के सब लोगों ने रश्मि की समस्या पर विचार किया और ये निष्कर्ष निकाला कि रश्मि के विवाह में धोखा दिया गया है, इसलिए रश्मि को ससुराल न भेजा जाये। रश्मि को तलाक दिलाकर उसका विवाह कहीं अन्यत्र कर दिया जाये क्योकि रश्मि मात्र अभी उन्नीस साल की थी, रश्मि में सुन्दरता भी कूट-कूट कर भरी थी।

      जीजाजी भी रश्मि के सुखी जीवन के लिये विवाह का खर्च दुबारा झेलने को तैयार थे। वैसे रश्मि इतनी सुंदर थी कि विधुर तो क्या अविवाहित लड़के भी रश्मि कसे विवाह को तैधार हो जाते। इस फैसले से सभी राहत महसूस कर रहे थे।

      रश्मि के इन शब्दों ने सबके मंसूबों पर पानी फेर दिया कि “मैं दूसरी शादी नही करूँगी मेरी किस्मत में जो पति था वह मिल गया। वही मेरा सब कुछ है आप सब बतायें कि दूसरे विवाह के पति में यदि कोई कमी निकल आई तो क्या मेरा तीसरा विवाह करेंगे ?” रश्मि के तर्क के सामने सभी निरुत्तर हो गये और भारी मन से पंजाब जाने के बाद दुबारा रश्मि को अपने ससुराल भेज दिया गया।

      एक साल बाद रश्मि को लड़का पैदा हुआ लेकिन वह पैदा होते ही मर गया क्योंकि लड़के में हड्डियाँ ही इतनी कमजोर थी बस मांस का लोथड़ा मात्र था । रश्मि पर गिरी इस बिजली का सभी को दुःख हुआ, पर कोई क्या कर सकता था। एक वर्ष बाद फिर रश्मि ने एक बेटी को जन्म दिया जो हष्ट-पुष्ट व स्वस्थ थी।

      इस बीच रश्मि की सास ने रश्मि व उसके पति को परेशान करके घर से निकाल दिया क्योकि उसके पास दो बेटे और थे। रश्मि के पिता ने रश्मि की परेशानियों से तंग आकर अपने घर से दूर साठ हजार की जमीन खरीद कर एक कमरा व रसोई बनवा दी ताकि रश्मि सास की यातनाओं से मुक्ति पा सके। बहन जी के बेटों बहुओं को (रश्मि के भाइयों व भाभियों) ये बात नागवार गुजरी। उन्हें लगा कि इतने नजदीक आकर रश्मि का बसना उनके लिये सुदा का सिरदर्द होगा।

      भाभियों की बात मानकर धीरे-धीरे भाइयों ने भी रश्मि से नाता तोड़ लिया। रश्मि ने कुछ उधार कुछ जेवर बेचकर एक परचून की दुकान खोल ली ताकि आँख से कमजोर उसका पति घर पर बैठकर ही दुकान चला सके। जब दुकान के लिए माल खरीदने के लिये उसका पति बड़ी बाजार जाता तो रश्मि स्वयं दुकान में कुर्सी डालकर अपनी दुकान चलाती, वैसे भी वह अपने पति को दुकान के काम में मदद करती रहती और खाली समय में स्वेटर बुनकर कुछ पैसे भी कमा लेती। लोगों के स्वेटरों से बची ऊन से रंगबिरंगे मोजे, टोपी बनाकर बेटी को भी सजाये रहती । धीरे-धीरे उसकी दुकान चलने लगी बहुत तो नहीं पर गुजारे लायक आमदनी होने लगी। एक-एक करके रश्मि ने घर में फ्रिज, टी.वी., डबल बैड, गैस चूल्हा, सोफा आदि सामान बना लिया क्योकि विवाह में मिला सामान सास ने रख लिया था इसलिये हर सामान उसे स्वयं खरीदना पड़ा।

      इसी बीच रश्मि को एक बेटा पैदा हुआ पहले बेटे की तरह इसकी भी रीड़ की हड्डी नहीं थी पर ये पैदा होते ही मरा नहीं बल्कि रश्मि की सेवा से टंच व होशियार होता गया। इस बेटे ने रश्मि का बाहर कहीं भी उत्सव-विवाह आदि में आना-जाना बंद करवा दिया क्योकि इसकी गर्दन लुढ़क लुढ़क जाती थी । आज वह लगभग आठ साल का है आज भी वह बैठ नहीं पाता रश्मि को छोड़कर सभी जानते हैं इस लड़के को अंत में मृत्यु ही बदी है परंतु रश्मि इस हकीकत से बेखबर कभी किसी वैद्य के तेल मालिश, कभी कोई दवा, कभी कोई पूजा, कभी उपवास के द्वारा बेटे के अच्छे होने का यत्न करती रहती है।

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      विषमताओं के बाद भी उसने एक बड़ा कमरा घर की बाऊंड्रीवाल व दुकान में आवश्यक शोकेस वगैरह भी बनवा लिये हैं। अपनी लगन व कलात्मक गुणों से रश्मि ने घर को स्वर्ग या बना रखा है। आंगन की तुलसी में प्रतिदिन संध्या का दिया जीवन भर रोशनी बिखेरने का संदेश देता है। पति को कभी बादाम कभी मगज कभी दूसरे पौष्टिक तत्व देती रहती है। जिससे उसके पति की रतौंधी की बीमारी लगभग आधी हो गई है।

      एक बार रश्मि के पड़ौस में एक मौत हो गई, जिसमें उसकी भाभियों को आना पड़ा, मोहल्ले की औरतों के दबाव वश वे भी लौटते में रश्मि के घर आ गईं। रश्मि का घर देखकर वे दंग रह गईं उन्हें रश्मि का घर किसी मामले में उनके घर से कम नहीं लगा। लौटते समय रश्मि की भाभियाँ अपनी सहेलियों से बोली हमें तो रश्मि का घर देखकर आश्चर्य हो रहा है। हर तरह से रश्मि का घर हमारे घर से ज्यादा सुंदर, सजा-संवरा व भव्य है। भाभियों की सहेलियों ने उन्हें इतनी खरी- खोटी सुनाई कि रुआंसी होकर रह गईं।

      दिन गुजरते गये परिस्थितियाँ बदलती गई। आज रश्मि लगभग 27-28 वर्ष की है उसकी बेटी इंग्लिश स्कूल में थर्ड स्टेण्डर्ड में पढ़ती है। वह भी अपनी माँ के समान सुंदर व होशियार है। पोटली नुमा अपने भाई को बच्ची बहुत प्यार करती है। चम्मच से उसे दाल-खिचड़ी हलवा, दलिया आदि खिलाती है उसकी लार पोंछती है। वह लड़का भी अपनी बहन को देखकर इतनी खुशी जाहिर करता है कि जैसे उसे कुबेर का धन मिल गया हो आँखों में खुशी के दिये जलने लगते हैं अपनी खुशी का इजहार करते-करते अपनी तिपाईनुमा पलंग या कुर्सी से गिर पड़ता है। रश्मि व उसकी बेटी मिलकर उसे नहलाती व अन्य दैनिक क्रियायें कराती हैं। रश्मि आज भी दुबली-पतली अनखिली कली सी लगती है।

      इसी बीच बहन जी को लकवे की शिकायत हो गई। जीजाजी का फोन आया तो मैं और मेरे पति उन्हें देखने पहुँचे। बहन जी की हालत देखकर बहुत दुःख हुआ वे सूखकर कांटा हो गई थी पर कुछ बोल तक नहीं पाती थीं। प्रतिदिन सुबह-शाम रश्मि एक लूना पर अपनी माँ को देखने व भाभी के साथ मदद करके बहन जी को नहलाना- धुलाना आदि में मदद करने आती।

      रश्मि से काम की आशा तो भाभी करती थी पर एक कप चाय तक को जलन वश नहीं पूछती थीं फिर भी भाभी का तिरस्कार सहकर रश्मि, माँ की सेवा करने बिना नागा पहुँचती जिस दिन वह किसी कारणवश लेट हो जाती तो भाभी बातों की बर्छियां मारने से न चूकती। शायद इस बात से भाभी अनभिज्ञ है कि मुसीबतों व कठिनाईयों से लगातार लड़ने वाली रश्मि फौलाद का हृदय रखती है भले ही देखने में भाभियाँ रश्मि की दासी से भी गई बीती दिखती हों फिर भी उनमें गजब का अहं भरा है। दो दिन रह कर हम लौट आये ।

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      एक माह बाद जीजाजी का फोन आया कि दीदी का स्वर्गवास हो गया। रोते-बिलखते मैं फिर अपने पति के साथ उनके दिनपानी (तेरहवीं) के दिन पहुँची क्योकि अग्निदाह पर पहुँचना असंभव था। वहाँ सभी रिश्तेदार मिले रश्मि की बहनें भी आई थी। सभी रो रही थीं पर रश्मि मुझसे लिपटकर इतना दर्द भरा रोना रोई कि मैं लगभग आधे घंटे उसे सीने से लगाये रोती रही। बहन जी की मौत के दुःख के साथ रश्मि के रिसते जख्मों ने मेरे अंतर्मन को आहत कर दिया था।

      बड़ी मुश्किल से सबने पकड़कर हमें अलग किया। वह बार-बार यही कह रही थी मौसी अब तो मम्मी नहीं बचीं अब आप भी न आओगी और मैं कभी अपने अपाहिज व बीमार बच्चे को छोड़ आपसे मिलने न आ सकूँगी इसलिए आज मेरी माँ भी गई व मौसी भी छिनी जा रही है। लाख जतन करके मैंने उसे दिलासा दिया व धीरज बंधाया पर वह थी कि सावन भादों को पीछे छोड़ती आँसुओं में डूबी रहती। मुझसे रश्मि की आत्मीयता इसलिए भी थी कि उसके जीवन की हर लड़ाई में मेरा आत्मीय आशीर्वाद व हल्का-फुल्का आर्थिक सहयोग उसके आड़े दिनों में कई बार संबल बन चुका था।

      लौटने के पहले मैं रश्मि के घर गई, रश्मि का घर रहन-सहन व दुकान रोजी रोटी की व्यवस्था देख मुझे जो खुशी हुई वो शायद मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती मेरी लिखी पंक्तियाँ मुझे सार्थक सी लगीं –

      “दीपक की तरह तू जलता चल, तू चलता चल, तू चलता चल,
      तय है गिरना उठना तेरा, रख धीरज और संभलता चल ।

      लौटने के बाद जब तब पड़ौसी के फोन नंबर पर रश्मि का सुख समाचार पूछकर अपने मन को संतोष दे लेती हूँ। अभी कुछ दिन पहले रश्मि ने बताया कि उसकी सास को अब अपने व्यवहार पर पश्चाताप है। ससुर के रिटायरमेंट पर जो पैसा मिला उसमें से उन्होंने दो लाख रश्मि को दिये हैं। रश्मि के जेवर भी सास ने रश्मि को लौटा दिये हैं। रश्मि की हर जीत पर मुझे लगता है कि जैसे मेरी जीत हो रही हो।

      काश भगवान एक बात रश्मि की और सुन लेता, रश्मि का बच्चा अच्छा हो जाता। बच्चा समय के साथ-साथ रश्मि की सेवा से बड़ा होता जा रहा है परंतु आज भी वह बैठ उठ नहीं सकता। वह रश्मि के लिये ऐसा बोझ है जिसे उठाकर रश्मि मात्र घर की तुलसी रह गई है। किसी भी विवाह, पूजा, हवन में कहीं भी घर से उसे इस हालत में छोडकर जाना संभव नहीं है। रश्मि की दुनिया आज उस अपाहिज बच्चे पर केन्द्रित है। वह उस पर अपने दिन-रात सुख सुविधाऐं न्यौछावर करती हुई किस्मत के दिये अनूठे उपहार को संजोने में लगी रहती है। शायद गीता का सार उसकी साँस साँस में समा गया है कि उसे मात्र कर्म करते चलना है फल तो प्रभु के हाथ में है निश्चित ही फल उसे मिलेगा। मुझे ये विश्वास है।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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