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    Monday, April 29, 2024
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      || आशु-वाणी (चतुष्पदी) ||

      आशु-वाणी

      (1)

      तुम लिखो चालीसा-चारण गान।
      हम गाते भारत माँ का गौरव-गान ।।
      तुम पाओ पद-पुरस्कार-सम्मान ।
      हम पाते जनता के दिल में स्थान ।।

      (2)

      जिन्दगी में वे बेशकीमती सिक्के हैं,
      जो बाजार में चलाये नहीं जाते ।।
      अच्छे-बहुत अच्छे कवि मंच में,
      अक्सर बुलाये नहीं जाते ।।

      (3)

      दिल देकर भी किसी को, वह जिन्दा है।
      मोहब्बत का वह माहिर कारिन्दा है।।
      मोहब्बत में मरता तो हर रोज है,
      मगर बड़ी जिन्दादिली से वह जिन्दा है।।

      (4)

      मेरी पत्नी भी किसी से कम नहीं।
      उसे झेलने का किसी में दम नहीं।।
      जितनी भी तारीफ करूँ मैं उसकी, कम है।
      लोग पूँछते मुझसे-तुम्हें खुशी है या गम है ?

      (5)

      जब कभी आप अपनों से उकताइयेगा,
      तो रुपयों का लेन-देन जरा बढ़ाइयेगा;
      साहब! सुकुनेतन्हाई तो आप पा जायेंगे,
      मगर दुआ-सलाम को तरस जायेंगे।

      (6)

      बिकना है तो बिको, खुशबू की तरह बाजार में।
      बिक कर भी जो, नहीं बिकती किसी दरबार में।।
      हवा गर साथ दे, तो खुशबू फैल सकती संसार में।
      खुशबू है कि रखती ईमान अपना, अपने अधिकार में।।

      (7)

      बेजुबान, बेअक्ल मील का पत्थर सच तो बोलता है।
      जुबांवाले अक्लमंदों-सा झूठ तो वह नहीं बोलता है।।
      जुबांवाले अक्लमंद यदि उसमें जान डाल भर पाते,
      खुदाकसम चाहते फिर जो वे, उससे वही कहलाते ।।

      (8)

      किनारे पर लगाने वाला केवट ही कश्ती डुबाने वाला है,
      गुनहगार कातिल ही यहाँ सजा सुनाने वाला है।।
      गवाह ने गिरवी रख दिये उसूल हैं।
      पेशी-बहस-सुनवाई सब फिजूल हैं।।

      (9)

      उनमें कहाँ था दम, जो कातिल को पकड़ पाते,
      वह तो मुखबिर का कमाल है।
      वह अलग बात है कि ठोकते वे अपनी ताल,
      कहते मुखबिरी भी हमारा जाल है।।

      (10)

      देख-देख कर युग की विडम्बना,
      लिखना पड़ता है जो नहीं चाहिए लिखना।
      अजब-गजब का खेल यहाँ सत्ता की महत्ता का,
      जो धरती के भार हैं, उन पर भी भार सत्ता का।।

      (11)

      कर में झाडू, कर भी चुकता करना होगा।
      अब इस प्रकार स्वच्छता करना होगा।।
      नये-नये तरीके कराधान के होंगे ईजाद ।
      तुम चाहे जितना करो जिन्दा-मुर्दाबाद ।।

      (12)

      मंजिल हमारी पूरब में, वो पश्चिम लिये जा रहा,
      और कहता-मंजिल आने तक इंतजार करो ।
      कश्ती डूबती हो मंझधार में,
      और जैसे कोई कहे- दिल थाम कर डूबने तक इंतजार करो।।

      (13)

      बंदर के भी हाथ उस्तरा पकड़ाओगे,
      फिर अच्छे दिन के ख्वाब रचाओगे ?
      एक व्यक्ति से राष्ट्र नहीं चल पायेगा।
      अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ पायेगा।।

      (14)

      आसमानी-सप्तरंगी चर्चायें, हवा में उड़ाने, आप उनके दिवाने हैं।
      जमींनी हकीकत में ढलें सपने सुहाने, तो उनका कुछ मायने है।।
      पारे-सा फिसलती चाँदनी, अँधेरा डालता डेरा, लोग अब भी बेठिकाने हैं।
      रोशनी ही यहाँ पालती आई अँधेरा, सियासत के सब एक ही घराने हैं।।

      (15)

      अपनी-अपनी ढपली, अपना राग अलाप।
      देश-प्रेम का बजा रहे जो भोंपू, करते स्वार्थ सिद्धि का जाप ।।
      देश-प्रेम की गढ़ी जा रहीं अपनी-अपनी परिभाषायें,
      कुँए और खाई के चुनाव में फँसी प्रजा, भाप सकें तो भाँप ।।

      (16)

      संचार-कान्ति के पथ पर जब से लोगों के कदम यहाँ पर बढ़ने लगे,
      किताबों के दुश्मन भी फेसबुक-व्हाट्सअप पर पोथन्ने गढ़ने लगे।।
      टपकते हुए मेसेज को कुछ तो बिना समझे ही अग्रसारित करने लगे।
      ऐसे चतुर सुजानों को क्या समझा जाये यहाँ, आशु मंथन करने लगे।।

      (17)

      आग लगाकर यहाँ बुझाई जाती है।
      वाहवाही इस प्रकार भी लूटी जाती है।।
      शब्दों के संजाल बुन दिये जाते हैं।
      आग लगाने वाले शान्तिदूत कहलाते हैं।।

      (18)

      आग लगाने वालों! तुमको भी कुआँ खोदना होगा,
      आतंकवाद से महफूज तुम्हें यदि रहना होगा ।।
      आग, आग है; माना बढ़ती उधर, जिधर हवा का रुख है।
      आग लगाने वालों! मत भूलो, हवा बदलती रहती रुख है।।

      (19)

      दीपक दुनिया को रोशनी देता रहा,
      अपने तले का अँधेरा मिटा नहीं पाया ।।
      वह वक्त आ गया है अब यहाँ यारों,
      सूरज भी उजाला माँगने पर उतर आया।।

      (20)

      अँग्रेज थे, उनको भगा दिया।
      ये अपने हैं, इन्हें कहाँ भगाऊँ ?
      मेरा मकसद है यारों !
      इन्हें ही अच्छा बनाऊँ ।।

      (21)

      रास्ते का काँटा, काँटा डालकर नहीं हटाया जाता।
      नफरत की आग को नफरत से नहीं बुझाया जाता।।
      हवा में गाँठ बाँधने का ख्वाब भी नहीं रचाया जाता।
      बबूल बोकर आम खाने का इरादा नहीं बनाया जाता।।

      (22)

      रहा समेटता जीवन-मूल्यों को ही,
      फिर भी मूल्य न मेरा बढ़ पाया।।
      कोई कमी भी खासी खास न थी मुझमें,
      मूल्यों का अवमूल्यन सीख न पाया।।

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      (23)

      जल में भी यहाँ मछलियाँ मिलती प्यासी।
      सुविधाओं के घर में भी छायी यहाँ उदासी ।।
      कोई मध्य अभावों के भी मस्ती का अभ्यासी ।
      सुख-संतोष नहीं तो व्यर्थ संपदा अच्छी-खासी ।।

      (24)

      रुठियेगा मत कभी,
      गर भूल जायें।।
      चिरागे रोशनी हैं आप,
      अँधेरा हुआ तब याद आये ।।

      (25)

      कौन सुखी है भू पर क्या सुख के माने ?
      पृथक-पृथक पृथ्वी पर पैमाने ।।
      कोई पीकर दर्द लगा है गाने।
      कोई पीकर हाला लगा भुलाने ।।

      (26)

      प्यासे को पानी की तस्वीर दिखाई जाती है,
      ऐसे भी विकास की घुट्टी यहाँ पिलायी जाती है।।
      मैं तो हरदम अपना फर्ज निभाता हूँ।
      कलमकार हूँ, बात सही जो, वही बताता हूँ।।

      (27)

      कहीं पर किसी की बेशकीमती आबरु,
      बेबसी में नीलाम होती रही।
      मीडिया समूचे देश की किसी सूट की,
      नीलामी दिखाने में लगी रही ।।

      (28)

      देखकर गुणगान हद से ज्यादा हाकिम के,
      मुझे यूँ लगने लगा-
      हमारी सोशल मीडिया भी क्या किसी के
      इशारे पर चलने लगा ?

      (29)

      कान-आँख सब खोलो, सावधान हो जाओ अब देश-द्रोह के नारों से।
      सीमा से भी ज्यादा खतरा है, देश के भीतर छुपे हुये गद्दारों से ।।
      भारत माता का भार जा रहा बढ़ता अब धरती के भारों से।
      वोट बैंक की जमीन पर पनपी गद्दारी को काटो जड़ से वारों से ।।

      (30)

      मुद्दों से भटकाते हमें, खुद का ध्यान माला और माल के पास।
      जनता की आशाओं में पानी फिरता, बुझती किन्तु न इनकी प्यास ।।
      करना था हरिभजन जिनको, ओटन लगे कपास।
      वोटन के चक्कर मा कर रहे, देश का सत्यानाश ।।

      (31)

      बिन पेंदी के लोटे-से जो लोग लुढ़कते, सिद्धान्त बन गये मुखकौर।
      उन महिमामण्डित आदर्शनायकों की पोल, लेखनी मेरी खोलेगी ।।
      शब्दों की मायानगरी में मन की बात जुबां, रामै जाने क्या बोलेगी?
      दिल का अल्ट्रासाउण्ड लिए कवितायें मेरी दिल की बात यहाँ बोलेंगी ।।

      (32)

      पत्रकार युग-दर्पण, लोक भलाई में नारद बनता है।
      संजय दृष्टि लिए वह धृतराष्ट्रों को ज्योति दिया करता है।।
      खबरों से खबरदार पत्रकार आकार सुघड़ करता है।
      दरबारों का दरवान नहीं, वह जन-प्रहरी बन छपता है।।

      (33)

      अब तो जो सर्टीफाइड ब्रेन्डेड यहाँ भगोड़,
      महापुरुष बनने की वे भी लगा रहे हैं होड़।।
      तोड़-फोड़ की विद्या में पारंगत बेजोड़ ।
      अपना उल्लू सीधा कर मुख को लेते मोड़ ।।

      (34)

      जीते जी मरने वाले यहाँ बहुत देखे,
      हम मरने के बाद भी जीने वाले हैं।।
      वे मालामाल बहुत, फिर भी हैं कंगाल,
      ‘आशु’ फकीरी में सुल्तानी जज्बा पाले हैं।।

      (35)

      बन्द करो गरीबी-गरीबी बोलना, बहुत बोले ये भाषा।
      गरीबों के रहनुमा बदल देंगे गरीबी की परिभाषा ।।
      विकलांग को दिव्यांग बोलने लगा है हमारा देश।
      गरीब को अमीर बोलने का आ सकता है अध्यादेश ।।

      (36)

      जबसे आदमी की आँख का पानी मरा,
      और उसमें पानीदारी की कमी आई है,
      इस बात को यह आदमी क्यों नहीं समझता-
      तभी से पानी की भीषण समस्या उभरकर आई है।।

      (37)

      आदमी के अन्दर पानी कम हुआ,
      जमीं पर कई जगह बाढ़ आई है।।
      बात बड़ी साधारण-सी,
      मगर आदमी की समझ में नहीं आई है।।

      (38)

      बेदाग दामन को देखकर मत मन को भरमाइयेगा।
      यहाँ दामन दागों को छिपाने के भी काम लायी जाती है।।
      आवरण से ढके हैं लोग, हकीकत आइने से रुबरु होती नहीं।
      कहने को कुछ भी कहो यहाँ हवा में भी गाँठे बाँधी जाती हैं।।

      (39)

      मोहब्बत दिल में होती, तो बस होती है।
      क्या इजहार-ए-इश्क की जरुरत होती है ?
      बस इतनी ही कमी थी, जिसकी सजा पाया-
      दिल के मसलों में दिमाग नहीं लगा पाया।।

      (40)

      बात इशारों में हो जाती,
      अफसाने बन जाते हैं।।
      समझने में जमाने वालों को,
      जमाने लग जाते हैं।।

      (41)

      शेर-शेर कहते नर-नाहर,
      बलवान बनते बड़े दिलेर।।
      नारी के आगे भीगी बिल्ली बनने में,
      लगती नहीं तनिक भी देर ।।

      (42)

      सबको अच्छा लगता जब मित्र डालते मुझको माला ।
      पर मेरी पत्नी के दिल का जाता निकल दिवाला ।।
      वे कहती सब तुम्हें चढ़ाते और बनाते चघ्घा ।
      माला नहीं, माल लाओ मेरे दिलवरजानी मघ्घा ।।

      (43)

      मैंने पूछा- चाचा, क्या हाल-चाल है ?
      बोले बेटा- हाल वही, पर यहाँ द्विरंगी चाल है।
      तुम शहर में रहना, यहाँ बड़ा जंजाल है।
      खेती-पाती दूर से करना, यहाँ बड़ा बवाल है।

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      (44)

      राजनीति की लिप्सा कुछ भी करे बयान-
      वोट, नोट, सत्ता का केवल रखती ध्यान ।।
      ऊँचाई वालों की कितनी गिरती यहाँ जबान,
      वोटतंत्र के भोलू माधव अब तो जाओ जान।।

      (45)

      जंगल की हवा-पानी-खुशबू का ठेका पार्क लेने लगे।
      कोसों की हरियाली हम गमलों में कैद करने लगे।।
      हवा में कम हुई आक्सीजन, सिलेण्डर भरने लगे।
      सूरज की रोशनी का सौदा यहाँ जुगनू करने लगे ।।

      (46)

      सूरज की रोशनी का सौदा यहाँ जुगनू करने लगे।
      दो कौड़ी के लोग करोड़ों का हलफनामा भरने लगे।।
      जबसे जमीं पर मुद्रा बन गई विकास का मानक,
      चरित्र डिगने लगा, अर्थ आदर्श के बदलने लगे।।

      (47)

      सिंह के जो गिन दे दाँत, ऐसी भरत वाली वीरता का यह देश है।
      सिन्धु को जो सोंक लें, ऐसे धीर-वीर पुरुष का रहा यहाँ साधु वेश है।।
      शत्रु सुन लें, रावण जैसे योद्धा को बालि-बल ने यहाँ काँख दाबा है।
      हिंसा हमें भाती नहीं, वरना एक सेना भर तो यहाँ नागा बाबा हैं।।

      (48)

      जलने वाले जल जायेंगे।
      हम दीप-सा जलते जायेंगे ।।
      हवा की बदनियत से बुझ भी गये,
      तो रोशनी के वंशजों में गिने जायेंगे ।।

      (49)

      अब हम प्रगति-पथ पर बढ़ने लगे,
      क्योंकि कुछ लोग हमसे जलने लगे।
      जलने वाले तो जलकर बुझ जायेंगे;
      हम उनके लिए भी दुआ करने लगे ।।

      (50)

      घोड़ों के ऊपर अब गधे लगे हैं रंग जमाने ।
      घोड़ों को घास नहीं, गधे लगे हैं चने चबाने ।।
      सीपों-सीपों का सुर-ताल, चाल-ढाल सब वही पुराने।
      चने चबाकर घोड़ेपन का दावा, वाह रे जमाने ।।

      (51)

      अँधेर नगरी, चौपट राजा,
      उड़ा ले वक्त का भरपूर मजा ।।
      नाकों चने चबाये कोई यहाँ,
      किसी का जुल्म, किसी को सजा ।।

      (52)

      काश मरने-जीने का विधान आदमी के हाथ होता!
      तो मुश्किलातों में मर जाता, सहूलियतों में जी जाता।।
      फिर क्या बुरे दिन-क्या अच्छे, कोई क्या समझाता ?
      बड़ी मुश्किल से नेता को कोई मुद्दा मिल पाता।।

      (53)

      अच्छे-अच्छे लाइन में यहाँ लग गये।
      शूरमाओं की शंहशाही के किले ढह गये।।
      गरीबी मिटाने का ख्वाब मुल्क ने संजोया,
      वो एक झटके में अमीरी मिटाने लग गये।।

      (54)

      सवाल पर भी यहाँ सवाल किये जाते हैं,
      इस तरह भी यहाँ जवाब दिये जाते हैं।।
      सँभल कर रहना साथियों अदालत में,
      बगावत में वफादार भी उतर आते हैं।।

      (55)

      चोरी करो तो ऐसी, अदालत सजा दे न पाये ;
      चुराना है तो साथियों, किसी का दिल चुराओ ।।
      जालिम जमाना जुल्म मढ़ता है, तो मढ़ने दो;
      चोरी करो, सीना जोरी से चितचोर कहाओ ।।

      (56)

      महासमर के घमासान में सुनो भाई साधो !
      मचा हुआ है हल्ला-हवाओं में गाँठें बाँधो ।।
      जुबानी जमा खर्च की खूब यहाँ भरमार,
      वोटतंत्र के माधव वोट-शरासन साधो ।।

      (57)

      चुनाव की काँव-काँव,
      नगर-गली, गाँव-गाँव ।।
      सियासियों के नये-नये दाँव।
      मतदाता सँभालें! लोकतंत्र की नाव ।।

      (58)

      चुटकुलों के पूरे खानदान से वाकिफ हूँ,
      सुन-सुन कर आप लोट-पोट हो जायेंगे।।
      मगर हम ठहरे कविता के खानदानी,
      इसलिए चुटकुले आपको नहीं सुनायेंगे।।

      (59)

      जबसे सरकार ने विकास को सरकारी अजेण्डा बनाया,
      मुल्क के कुछ विपक्षी नेताओं ने अपना किरदार यूँ निभाया-
      जिन-जिन के बाप का नाम बाइडिफाल्ट विकास था,
      उन्होंने अपनी वल्दियत बदलने का विचार बनाया।।

      (60)

      जबसे राजनीति में विकास-विकास-विकास का मुद्दा जोरों से गर्माया,
      हमारे गाँव का गरीबे इस तरह चर्चा में उभरकर आया-
      फखीरे, मँगतू, भीखू अपने तीनों बेटों का नाम उसने क्रमशः-
      विकास-प्रथम, द्वितीय, तृतीय रखकर विकास का परचम फहराया।।

      (61)

      विज्ञापन चिल्ला रहे पीट-पीट कर ढोल ।
      अच्छे दिन अब आ गये, बस दरवाजा खोल ।।
      बोल-बोल कर काम यहाँ पर अक्सर जाता बोल ।
      बोल सकें जितना चाहें बोलें, टैक्सफी हैं बोल ।।

      (62)

      बत्ती तो गुल हुई लाल-नीली, लाव-लश्कर में उबाल है।
      लाल-पीले हुए एक नेता ने कहा- मुझे नहीं कोई मलाल है।।
      शान-शौकत, रुतबा-रुआब हमेशा ही बत्ती लगी गाड़ी ने बढ़ाया।
      मूँछों पर ताव देकर तुम्हीं कहते थे- देखो वी.आई.पी. दरवाजे आया ।।

      (63)

      बात बहुत छोटी भी बड़े आदमी की,
      आकाशवाणी-सी पसर जाती है।।
      बात बहुत बड़ी भी छोटे आदमी की,
      नींव की ईंट-सी दफन हो जाती है।।

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      (64)

      प्रजातंत्र में जनता को मालिकपन का कुछ यूँ अहसास दिया जाता है-
      परकटे हुये पंक्षी को, जैसे उड़ने को पूरा आकाश दिया जाता है।।
      जनता ही होती हरदम यहाँ हलाल, ऐसा जाल बुना जाता है।
      कितने भी हों चुनाव, शिकार वही, बस शिकारी बदल दिया जाता है।

      (65)

      मरीज किसी मजहब का हो भाई,
      मर्ज एक है, तो उसकी एक ही दवाई।।
      यह बात अच्छे से समझ में आये,
      तो खत्म हो जायें सारी लड़ाई।।

      (66)

      ‘निन्दा-निन्दा-निन्दा’ बहुत सुनी आतंकवाद की अब तक निन्दा।
      अन्तिम नींद सुला न पाये आतंकवाद को, अब हो जाओ शर्मिन्दा ।।
      मुद्दा कोई मरने न पाये, राष्ट्रवाद का भोंपू रहो बजाते।
      कुर्सी बहुत दुःखी है, बैठी उस पर लाश यहाँ पर जिन्दा।।

      (67)

      धधकते शहर से धुँआ सियासत का उड़ाया जाता है।
      आग बुझती, तो राख में काली करतूतों को छिपाया जाता है।।
      रहनुमाओं में देखकर बढ़ता हुआ शिष्टाचार,
      पड़ताल की, तो पता चला चुनाव का माहौल बनाया जाता है।।

      (68)

      बंजर जमीं पर क्या बादल बरसना छोड़ देंगे ?
      चिलुओं के डर से क्या हम कंबल ओढ़ना छोड़ देंगे ?
      भीड नजरअंदाज करती है, तो करने दो ‘विनय’,
      एक अर्जुन के लिए हम कृष्ण-सा पूरी गीता बाँच देंगे।

      (69)

      इतिहास के लिए इतिहास को नहीं उलझाया जाता।
      ताज के लिए ताज का विवाद यहाँ पर उठाया जाता।।
      सँभल कर रहना साथियों सियासत के दाँव-पेंचों से,
      मूल मुद्दों से ध्यान आपका कहीं से कहीं भटकाया जाता।।

      (70)

      दुरंगे लोग तिरंगे हो जायें,
      या फिर तिरंगे के रंग में रंग जायें।।
      रंग बदलना ही है उन्हें तो,
      वतन के रंग में रंग जायें।।

      (71)

      रंगों के ऊपर यहाँ रंग चढ़ाया जाता है।
      सियासत के रंग में रंगों को रंगा जाता है।।
      रंगों से जोड़ता नाता ये आदमी देखिये,
      कितने रंग बदलता, रंग दिखाता है ?

      (72)

      पहने तो बहुत अच्छे लिबास हैं,
      जनता की भीड़ में खासोखास हैं।
      इनमें से कुछ लोग नंगे हैं,
      हम इन्हीं नंगों को नंगा करने में लगे हैं।।

      (73)

      उसने बोला अपने नेता जी से-
      देखो देखो-देखो! बिगड़ रहा है गाँव-देश का हाल ।।
      नेता जी बोले- तुम ज्यादा मत देखो,
      वरना मैं लूँगा तुमको देख, तो मिट जायेगा मेरे लाल ।।

      (74)

      हम कल भी जनता थे, आज भी जनता हूँ, कल भी रहूँगा जनता।
      मंत्री, विधायक, अफसर सोंचे, जिन्हें कुर्सी से उतरना पड़ता।।
      कुर्सी से उतरे, तो जनता की जमात में शामिल हेतु आना होगा।
      नहीं सँभले अगर आज, तो कल बहुत पछताना होगा।।

      (75)

      चालिस वाहन के चालान करें,
      चौराहे पर सोच रहा वर्दीधारी।
      ऊपर से आयी लिमिट, लाचार सिपाही,
      बदनाम हो गयी थानेदारी ।।

      (76)

      भगवा रंग मा रंगी जा रहीं दीवारै व मोटरगाड़ी।
      भगवा रंग मा रंग का बस बची है दाढ़ी ।।
      चर्चा जोर-जोर से चालू भई गाँव-गली, घर-घर,
      सबकी तरह यउ देखायि रहे अपन रंग दर-दर ।।

      (77)

      चोर से चोरी, चौकीदार से रखवाली
      का उपदेश अपने हिन्दुस्तान मा ।।
      तम्बाकू की पुड़िया पर टंकित चेतावनी
      बिकी बन्द न, यहि देश महान मा ।।

      (78)

      मूल्य बढ़ाव, फिर उनका घटाव,
      यहि टेक्नोलाजी मा लागत दिमाग है।
      बिना लड़े कुश्ती जीतब दंगल,
      यहौ अपन-अपन दिमाग है।।

      (79)

      कविता लिखा है दिल से, पढ़ें का मौका पावा,
      यहुँम लाग दिमाग है।
      मंच न समझौ यहिका, संसद अस हियौ
      जोड़-घटाना, गुणा-भाग है।।

      (80)

      मंकीमैन, मुँहनोचवा फिर चोटीकटवा तक आय गवा।
      अफवाहन से नाक कटि रही, काहे नहीं चिल्ला रहे- नाककटवा ?
      सगूफन मा तुम उलझे रहिऔ, मउज काटि रहे मउजकटवा ।
      असली मुद्दन का ध्यान धरौ, भटकब बन्द करौ बेटवा ।।

      (81)

      अँगुली पकड़-पकड़ कर चलना सीख, अँगुली उठा रहे हैं।
      सीख-सीख कर लोग यहाँ एक-दूसरे को सबक सिखा रहे हैं।।
      मेरी तो फितरत है- नेकी कर दरिया में डालो।
      हे भगवान! धरती के बोझों का बोझ सँभालो ।।

      (82)

      जबसे देखा है सुनामी का कहर,
      सुनामी लोगों से लगने लगा है डर।
      सुनामी, सुनामी बनने न पायें इसलिए,
      ऐसे लोगों की नजर पर रखिये नजर।।

      (83)

      जग तो बहता, बहती जिधर बयार।
      जगत-नियन्ता के हाथों, अपनी तो पतवार ।।
      शोहरत और संपदा की यहाँ मची है मारामार।
      अपना मिजाज तो अलमस्त फकीरी वाला यार।।

      लेखक
      श्री विनय शंकर दीक्षित
      “आशु”

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