अपने हाथ सभ्यता और संस्कृति मिटा रही,
युवा पीढ़ी आज की यूँ गर्त में जा रही ।
बात करें चीर की तो चीर अब बचा कहाँ,
आँख में शर्मो-हया का नीर अब बचा कहाँ ।
सीने और जाँघ पर लकीर सी दिखा रही,
अपने हाथ सभ्यता और संस्कृति मिटा रही ।
फूल और फूल का मिलन संकेत होता है,
चोंच का मलाप प्रेम रंग में भिगोता था ।
फिल्में बेधड़क ही शैय्या दृश्य दिखला रहीं,
अपने हाथ सभ्यता और संस्कृति मिटा रही ।
जन्म दिवस पार्टियों का लालच देर रात तक,
नशा और नृत्य कहीं कहीं हो प्रभात तक ।
सुबह भी न पूछते बेटी कहाँ से आ रही,
अपने हाथ सभ्यता और संस्कृति मिटा रही ।
नमस्कार की जगह चुंबन हुआ है आम अब,
नग्नता ने आचरण की कर ही दी है शाम अब ।
सभ्यता का यूँ मखौल नग्नता उड़ा रही,
अपने हाथ सभ्यता और संस्कृति मिटा रही ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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