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      || जख्मी बचपन ||

      जख्मी बचपन

      ये कचरे में से कचरा ढूंढ ढूंढ़ चीन्हते बच्चे
      कागज प्लास्टिक पन्नी और कांच बीनते बच्चे ।
      किताब कापी या कलम नहीं जिनके नसीब में,
      फकत रोटी के लिये खुद से बचपन छीनते बच्चे ।।


      भला क्यों जिंदगी को जिंदगी सा जी नहीं सकते,
      न सही दूध मगर साफ पानी पी नहीं सकते ।
      नहीं करते ये बाल,डाल की बातें न सही पर,
      फटे चिथड़े ये सुई धागा लेकर सी नहीं सकते ।।


      समाज के मसीहा और ठेकेदार बतलायें,
      नजर आएं नही तुमको तो चलो हम ही दिखलायें ।
      झूठी शान खुदगर्जी के आलम में जीने वाला,
      आओ तुमको जख्मी बचपन की गलियों में ले जायें ।।


      अगर सम्भव हो तो कलम दवात दो इन्हें पहले,
      न रहे भूख रोटी की,सौगात दो इन्हें पहले ।
      गया इक बार जो बचपन नहीं आता पलट के,
      हमदर्दी भरा सर इनके हांथ, दो इन्हें पहले ।।


      न सही सैंटमेरी क्राइस्ट चर्च,बस पाठशाला दो,
      जरा बचपन के भोलेपन का भी इनको निवाला दो ।
      नहीं है कार या रिक्सा मगर पांवों में जूता हो,
      ये कोमल फूल हैं इन पर न काँटें हों,न छाला दो ।।


      न जाने कौन इनमें आर्म स्ट्रांग,आइंस्टीन हो,
      न जाने कौन गांधी जी के जैसा दयादीन हो ।
      कोई इनमें भी होगा बोस या अम्बेडकर सा भी,
      न जाने कौन महावीर गौतम नामचीन हो ।।


      तुम्हारे हाथ है चाहो तो बातों बात में दे दो,
      अगर चाहो तो तुम बचपन उन्हें सौगात में दे दो ।
      तुम्हारे पास है सूरज अरे ओ रोशनी वालों,
      दिया इक टिमटिमाता सा सियाह रात में दे दो ।।

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      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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