आशु-वाणी
(1)
दीप प्रज्ज्वलित हो, जग-जीवन में बिखरे भरपूर उजाला ।
तम की बस इतनी गुंजाइश हो, जैसे गोरे गालों पर टीका काला।।
(2)
मेरे शब्दों से दिल के जज्बातों को मत तोलो।
दिल को पढ़ने के खातिर दिल की आँखें खोलो ।।
(3)
शब्दों की माया नगरी में सोच-समझकर बोलो ।
काम अगर चल जाये आँखों से, तो मुँह मत खोलो ।।
(4)
जीवन में जीभर हँसना और हँसाना।
पर पात्र हँसी के मत बन जाना।
(5)
जीवन में मंगल नहीं, मंगल में जीवन जा रहा तलाशा।
ये आदमी सचमुच शोध कर रहा, या फिर कोई तमाशा ?
(6)
जब से दूसरों के रुमाल से हाथ-मुँह पोंछने वाले लोग बढ़ने लगे,
वे रुमाल रखना बन्द कर दिये, हम जेब में एक ज्यादा रखने लगे।
(7)
माँ भारती ने जो यश दिया, वह किससे कम है ?
मुझे तो किसी यश भारती के पाने की खुशी न गम है।
(8)
आदमी मरा है साहब ! मौत पर होती सियासत ।
रुह कहती-मुआवजा है या वोट की हिफाजत ?
(9)
मैं कोई सरताज न खिताब चाहता हूँ।
बस ढाई आखर का हिसाब चाहता हूँ।।
(10)
तुम सचमुच भारत के लाल बहादुर, किया नाम चरितार्थ।
अब तो वही बहादुर लाल, जो सिद्ध कर रहे अर्थपूर्वक स्वार्थ।।
(11)
गाँधी जी ! कौन कहता है- कम हो गई अब तुम्हारी महत्ता ?
हिला देता आज भी सत्ता, तुम्हारी आकृति छपा कागज का पत्ता ।
(12)
आजादी के महापर्व पर गाँधीजी ने स्वर्ग लोक से देखा,
चरखा सूती वाले उनके चेले रहें सूत, चरखा।
(13)
दिल के आपरेशन से इसलिए दुःखी नेता,
क्योंकि राजेदिल को जान गई जनता ।
(14)
संसद लोकतन्त्र का पावन मन्दिर है।
बहुतेरे कालनेमि जिसके अन्दर हैं।।
(15)
चाहे जितना उड़े लोकतंत्र की खिल्ली ।
खाल बहुत मोटी ओढ़े है दिल्ली ।।
(16)
सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हज को जैसे हुई रवाना,
डाकू-चोर-लुटेरों ने शुरु किया है वैसे राजनीति में जाना।
(17)
अरबों-खरबों में खेल रहे, करोड़ों पचा गये।
लोग कहते दो कौड़ी के लोग, सियासत में छा गये।।
(18)
गैस-सब्सिडी मत लो-मत लो, मचा है हल्ला।
संसद में खा रहे सब्सिडी वाले रसगुल्ला ।।
(19)
घोटालेबाज कोई कम, कोई ज्यादा।
जिसकी पूँछ उठाओ, वही दिखे मादा।।
(20)
जबरदस्त वी.आई.पी. कल्चर से ग्रसित है देश।
रास्ते में कब दम तोड़ दे मरीज, तुम्हीं जानो महेश।।
(21)
कौन कसेगा भ्रष्ट-तंत्र पर यहाँ शिकंजा ?
गले में कंघी लटकाये घूम रहा है गंजा।
(22)
विकृत व्यवस्था, उलझा रुप देश का सँवर जायेगा,
जिस दिन गंजों के हाथ से कंघी को छीन लिया जायेगा।
(23)
कानून का उड़ा मखौल, जनता की खिल्ली, ठेस खा गये अरमान,
नेताओं पर लगे मुकदमें वापस होने का जब आया फरमान ।
(24)
हुनर तो कोई बड़ा न था, मगर दिखता वह बड़ा था।
गौर से देखा, तो वह हमारी बुनियाद पर खड़ा था।।
(25)
एक तरफ कुँआ, दूसरी तरफ खाई।
जनता किस दल दलदल में फँसे भाई ?
(26)
आँखों से निकल रहा है काजल, तुमको अहसास नहीं।
लट्टू तुम जितना उस पर, उतना लायक खास नहीं ।।
(27)
बन्द कर दिया दोस्तों को आजमाना मैंने इस ड़र से,
कसौटी पर खरे न उतरने वाले, उतर न जायें मन से।
(28)
खरीदता कोई नहीं, फिर भी बिकता है ईमान ।
क्या अजीब सौदा जमीं पर करता है इन्सान !
(29)
तबियत बिगड़ती, दर्द भी सहना पड़ता है।
शुकिया दर्द का, हमदर्द का पता चलता है।।
(30)
मैंने तो बयां की थी दर्द की आह।
लोग हैं कि कह रहे वाह-वाह ।।
(31)
बड़ा भयानक होता अल्कोहल का कोलाहल!
सभी लोग मिलकर ढूँढ़ें इसका समुचित हल।
(32)
कमलापति, पशुपति, राष्ट्रपति, लखपति सबके रुप-स्वरुप धन्य हैं।
पत्नीपति रुप में श्रमजीवी-सेवक, जीवन उसका बन्धन जन्य है।।
(33)
सत्तासीन नेताओं के भाषण लगते जैसे कोई सरकारी विज्ञापन।
जनता स्वयं जानती किस तरह कर रही अपना जीवनयापन ।।
(34)
जमीं पर आदमी के कब्जे देख-देख कर आसमां हैरान है।
आदमी यह न समझे कि ऊपर वाला उसके कारनामों से अन्जान है।।
(35)
धन-दौलत, जमा-पूँजी, बैंक का बही खाता,
ऊपरवाले के यहाँ ऑडिट में काम नहीं आता।
(36)
जिन्दगी ऐसी हो कि इबादत जैसी हो।
मौत ऐसी हो कि शहादत जैसी हो।।
(37)
जिन्दगी और मौत के बीच मौज ऐसी हो,
जिन्दगी जंग है, जंग में जीत फौज जैसी हो।
(38)
बड़े-बड़े बोल बोल रहे।
रेल हादसे पोल खोल रहे ।।
(39)
कोई माँगे सुबूत सर्जिकल का, कोई करे विज्ञापन ।
देश-भक्ति की ड्रामेबाजी हो रहा इसका मंचन ।।
(40)
करना था हरिभजन जिनको, ओटन लगे कपास।
कविता पढ़ने वाले चुटकुलों से करते समय को पास।।
(41)
माना कि जी बे-कार हैं, वुइ हिंया बेकार हैं।
बुद्धी से पैदल हिंया अच्छे-अच्छे सवार हैं।।
(42)
जहाँ माल है, हुआं मलाल है।
आदमी, आदमी का फँसावै वाला बुनत जाल है।।
(43)
कमी अगर है तो, दिल्ली की इच्छा-शक्ति में है।
देश-प्रेम का ज्वार यहाँ जवानों की भक्ति में है।।
(44)
लाल-नीली बत्ती गुल हुईं, जनता के वास्ते भ्रमजाल है।
भवकाल अब भी वही पुराना, लावलश्कर में उबाल है।।
(45)
लावलश्कर से लैश हो, जनता के बीच में आते हैं।
पता नहीं-जनता से डरते हैं या जनता को डराते हैं।
(46)
जगह-जगह पर डेरा डाले यहाँ दलाल हैं।
डेरा में सच्चा सौदा की कल्पना भ्रमजाल है ।।
(47)
जेहिका दद्याखौ वहै पकाय रहा अपनि-अपनि खिचड़ी।
मेल-जोल कै सीख लेव खिचड़ी से, तो बात न बिगड़ी ।।
(48)
हुद हुद बोला- मानव, मत पार करो तुम अपनी हद।
वरना मिट जाओगे, यदि हुद-हुद पार कर गया हद।
(49)
आज के सनसनीखेज समाचार को दबाकर दूसरा आने वाला है।
सियासत का सारा दिमाग अब इसी खेल में लगने वाला है।।
(50)
जिस दिन नंगे को नंगा सरेआम कर दिया जायेगा,
नंगापन छोड़कर वह भला आदमी बनने लग जायेगा।
लेखक
श्री विनय शंकर दीक्षित
“आशु”
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