दोहन हो रहा है दिन-दिन
दोहन हो रहा है दिन-दिन प्राकृतिक सम्पदाओं का,
सुनाई भी न दे रहा बिगुल भी आपदाओं का ।
जितना कुल हुआ है दोहन उन्नीस सौ पचास तक,
उससे बढ़कर हो गया अब किन्तु नहीं आभास तक ।
पर्वत,समुद्र,हवा पानी प्राकृतिक आभाओं का,
दोहन कर रहा है दिन-दिन प्राकृतिक संपदाओं का ।
पर्वत तोड़ डाले हमने अपने बौने स्वार्थ में,
सौंदर्य भी चला गया हरियाली गई व्यर्थ में ।
सहयोग वर्षा में है बहुत पर्वत सृंखलाओं का,
दोहन हो रहा है दिन-दिन प्राकृतिक संपदाओं का ।
पचास वर्ष लगे हैं एक-एक वृक्ष के बढ़ने में,
रात भी न लगी स्वार्थ की बलि पे चढ़ने में ।
वर्षा में सहयोग है वह की वाष्पीकृत हवाओं का,
दोहन हो रहा है दिन-दिन प्राकृतिक संपदाओं का ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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