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      || मेरे अंतस में उजियारा ||

      मेरा अंतस में उजियारा भरा-भरा सा लगता है,
      ना जाने भय भी क्यों मुझको जरा-जरा सा लगता है ।

      कभी तो बरबस खिल जाती हैं कलियाँ मन के आँगन की,
      और कभी तन-मन महका देती खुशियाँ अंतर्मन की,

      जग जो लगता था उजड़ा सा हरा-भरा सा लगता है,
      मेरे अंतस में उजियारा भरा-भरा सा लगता है ।

      और कभी आकाश के तारे बना लीये हैं घेरा सा,
      दूर भले ही कितना भी हो चंदा लगता मेरा सा,

      हृदय ममता के माणिक से जड़ा-जड़ा सा लगता है,
      मेरे अंतस में उजियारा भरा-भरा सा लगता है ।

      कोई अनदेखी सी शक्ति आ गई जैसे जीवन में,
      और नई एक धड़कन जुड़ गई इस सीने की धड़कन में,

      ये करिश्मा तो कुदरत का बड़ा-बड़ा सा लगता है,
      मेरे अंतस में उजियारा भरा-भरा सा लगता है ।

      लेखिका
      श्रीमती प्रभा पांडेय जी
      ” पुरनम “

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