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      || आशु-वाणी | नारद-नारायण संवाद ||

      नारद-नारायण संवाद

      एक दिन नारद जी भूलोक भ्रमण पर आये।
      यहाँ का विचित्र हाल देखकर बहुत घबराये।
      जब किसी आदमी से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये,
      तो जानवरों के झुण्ड में स्वयं एक जानवर बनकर नजर आये।

      और बोले- साथियों!
      विधाता ने भूलोक का स्वामी इन्सान को बनाया था,
      अक्ल का पुलिन्दा इसके हिस्से में थोड़ा ज्यादा आया था,
      किन्तु मुझे तो दिखता इसका बुरा हाल है।
      सच माने तो इन्सान की इन्सानियत बेहाल है।
      हुआ है पतित और देता दुहाई प्रगति की ठोंक कर ताल है।
      आप सब कहिये- आपका क्या खयाल है ?

      नारद जी का वक्तव्य सुनकर एक जानवर बहुत झल्लाया-
      ‘इन्सान’ शब्द गाली है, दुबारा इसे जबान पर न लाने के लिए समझाया।
      अरे इन्सान का कोई ईमान है ?
      जिसे तुम इन्सान कहते, वह हैवान है।
      माना कि हम सब असभ्य और जंगली हैं,
      परन्तु, इन्सानी-सभ्यता से हमारी असभ्यता भली है।
      माना कि हम आज भी नंगे हैं,
      पर, ये आदमी भी नंगा था।
      कपड़े के कारखाने बनाकर फिर नंगा हो रहा है

      और एडवान्स फैशन की दुहाई दे रहा है।
      माना कि कदाचित हम भी आपस में लड़ जाते लड़ाई हैं,
      परन्तु, आज तक किसी की पीठ पर छूरी नहीं चलाई है।

      अरे! ये इन्सान सक्षमता की देता दुहाई है,
      और तोप-गोलों के सहारे लड़ता लड़ाई है।
      अरे! हमने अपनी ताकत के बल पर युद्ध छेड़ा है,
      और इसने सृष्टि के विनाश की सामग्री जोड़ा है।
      माना कि हमने इसी की तरह किसी को ब्याह कर घर नहीं बसाया है,
      परन्तु, आज तक दहेज के लिए किसी को नहीं जलाया है।

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      अरे! हम इसकी तरह मद्यपान करके नहीं बौखलाते हैं,
      और अपनी हविश का शिकार किसी को नहीं बनाते हैं।
      ये पेट में पलती हुई अपनी सन्तान को भी मारता है।
      लिंग के आधार पर अपनी सन्तानों में फर्क करता हैं।
      अपने पढ़ने-लिखने के लिए स्कूल और मदरसे तो बनाता है,
      किन्तु, पढ़-लिखकर भी इन्सानियत का पाठ भूल जाता है।
      ये हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई तो बन जाता है,
      किन्तु, ‘भगवान सबका एक’ भूलकर फिर आपस में बट जाता है।
      पाप और पुण्य के पावन ग्रन्थ तो इसके किये कागजों में दफन है।
      बेखटक इन्सान इन्सानियत को मारने में मगन है।
      धर्म-ग्रन्थों के बनाये नियम और कानून तो भूल गया है;

      अब स्वयं कानून और कायदे गढ़ने में लग गया है।
      उन्हें बनाता है, फिर खुद तोड़ता है।
      इन्सान, इन्सान को खरीदने के लिए रिश्वत देता है।
      एक पल कर भरोसा नहीं, दस पीढ़ी तक के लिए जोड़ता है।

      अरे! धरती इसके कारनामों से भारी है,
      और ये कर रहा चाँद और मंगल पर जाने की तैयारी है।
      भूलोक में कर रहा जाति और धर्म के आधार पर सीटें आरक्षित है।
      चाँद और मंगल पर जाने वालों की सूची प्रतीक्षित है।

      यह सब सुनते-सुनते नारद जी और अधिक घबरा गये,
      और सीधे विष्णु लोक को वापस आ गये।
      भगवान विष्णु से बोले-प्रभो! भूलोक का बुरा हाल है।
      इन्सानियत खस्ताहाल, पर्यावरण बेहाल है।
      पशु और पक्षी परेशान हैं।
      मौत को वश में करने की कोशिश कर रहा इन्सान है।

      प्रभो! भूलोक में रिश्वत का इतना चलन है-
      कि इन्सान का यदि आपसे साक्षात्कार हो,
      तो आपसे कहेगा-
      कि मौत की मौत के लिए आपको चाहिए कितना धन है?
      यह सब सुनकर भगवान के शरीर में कोध से कम्पन होने लगा,
      जिसका भूलोक में भूकम्प के रुप में दर्शन होने लगा।

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      कोध से शरीर से पसीना निकलने लगा,
      जो प्रलय की वर्षा बनकर पृथ्वी पर बिखरने लगा।
      फिर कोध से आँखे तरेरी और बड़े जोर का गर्जन किया,
      जिसका आसमान में कड़कती बिजली के रुप में सबने दर्शन किया।

      भगवान को क्रुद्ध देखकर जगतजननी,
      जो सारे जगत का अभ्युदय करती हैं,
      महामारी बनकर संसार को निगल जाने के लिए उद्यत हुई,
      सागर की गुस्सा सुनामी के रुप में परिणत हुई।
      यह सब दृश्य देख-देख नारद जी और अधिक घबराये।
      इससे कि पहले विधाता सारी सृष्टि को निगल जायें,
      नारद जी भगवान के आगे हाथ जोड़कर बोले-
      हे ब्रम्हा-विष्णु-शिव शंकर भोले!
      मानव को एक मौका दीजिए,
      आवेश में सृष्टि को नष्ट न कीजिए।
      आपने पृथ्वी पर कुछ कवि उपजाये हैं,
      जो इन्सान को इन्सान बनाने का बीड़ा उठाये हैं।
      अभी कवि अपने धर्म से नहीं हारा है,
      उसका बहुत बड़ा सहारा है।

      अतः प्रभो ! अपना कोध शान्त कीजिए,
      और मानव को सुधरने के लिए थोड़ा समय और दीजिए।
      यह कहकर नारद जी ने भगवान को किसी तरह समझाया।
      अपना सारा संवाद मुझे स्वप्न में सुनाया।
      मैं आप सबको ‘नारद-नारायण संवाद’ सुना रहा हूँ।
      विनाश के कगार पर खड़ी सृष्टि को बचाने की गुहार लगा रहा हूँ।
      ऐसा न हो कि बार-बार नारद भगवान को समझा न पायें,
      और महाकाल बनकर वो सारी सृष्टि को निगल जायें।

      लेखक
      श्री विनय शंकर दीक्षित
      “आशु”

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