सबसे मेरी यही अपील
शादी के तीन वर्ष बाद अचानक एक दिन
सुबह-सुबह एक दम्पति मेरे पास आया।
फिर हाथ जोड़कर बड़े विनती भाव से
उस युगल ने धीरे से बुदबुदाया-
“पहिले भई सोनवा, फिर भई रुपवा,
फिर भई पितरी, मन हि मन उतरीं।
मैंने कहा- आप दोनों ने क्या सुनाया?
मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया।
वे बोले- ‘आप तो कवि हैं, आप भी इसके अर्थ को समझ नहीं पाये।
इन पंक्तियों के यथार्थ में हम अपना दाम्पत्य-जीवन जीते आये।’
मैंने कहा- ‘अर्थ का अर्थ ही समझ पाते, तो हम कवि नहीं बन पाते।’
वे बोले- ‘दाम्पत्य-जीवन में उपयोगिता-हास नियम लागू होता है।
अर्थात, उसका मूल्य सोने से चाँदी, चाँदी से पीतल, इस प्रकार अवमूल्यन होता है।’
मैंने कहा- ‘आप दोनों का आशय अब भी मेरी समझ में नहीं आया।’
तब उन दोनों ने पुनः हाथ जोड़कर बड़े कातर भाव से फरमाया-
‘हमारे विवाह के अब तक मात्र तीन वर्ष बीते हैं।
हम दोनों बड़ी टेन्शनभरी जिन्दगी जीते हैं।
घर-ससुराल इन सबके बीच बड़ी खींचतान है।
हम दोनों सचमुच बहुत परेशान हैं।’
मैंने कहा- ‘आप दोनों किसी ज्योतिषी के पास जाइये।
उसे अपनी कुंडली और हस्तरेखा दिखाइये।’
वधू बोली- ‘पहले उसी ज्योतिषी के पास गई थी,
जिससे विवाह विचरवाया था।’
किन्तु ज्योतिषी बोला- ‘मैंने सास-बहू की नहीं, वर-वधू की कुंडली मिलाया था।
अब तुम्हारी सास तुम पर खुश नहीं रहती, ननद छीटा-कसी करती, अन्य-अन्य अनेक समस्यायें…
एक ही दक्षिणा में हम किस-किस को सुलझायें?’
इसीलिए थक-हार कर हम दोनों आपके पास आये हैं।
आप कवि हैं, कवियों ने हर समस्या के समाधान सुझाये हैं।
इसी बीच वर बोला- ‘सर, अपना तो और भी बुरा हाल है।
बलि के बकरे की तरह हम होते रोज ही हलाल हैं।
शादी के पहले कहते थे घर वाले सभी हम आँख के तारा हैं।
जबसे नजरें चार हुईं, अपनी ही नजरों से उतारा है।
धोबी के गधे-सा ‘घर का न घाट का’ हाल हमारा है।
हमारी अक्ल का थर्मामीटर नहीं नाप पाता पत्नी के मिजाज का पारा है।
यह सुनकर पत्नी झल्लाई ‘इनको तो अपने ही कष्ट दिखते भारी हैं।
भूल गये पुरुषार्थ सारा, अब जी रहे जिन्दगी लाचारी में सारी है।’
उन दोनों को आपस में उलझते देख, मैंने तत्काल कुछ उपाय सुझाये,
जिन्हें अपना कर चाहें तो आप भी
अपना दाम्पत्य-जीवन खुशहाल बनायें।
पहले मैंने वर को समझाया,
धीरे से उसके कान में बुदबुदाया-
‘अपनी जान से ज्यादा तुम रखना
अब साली-साले का ध्यान, होगा तेरा कल्यान।
भइया-भाभी से ज्यादा तुम करना स
रहज का सम्मान, होगा तेरा कल्यान।
सास-ससुर की तुम ऐसी करना पूजा-
मानो उनसे बढ़के नहीं जगत में कोई दूजा।
गरदन भले तुम्हारी कट जाये,
पर बीवी की बात कभी न कटने पाये।
यदि वह रात को दिन बतलाये,
तो खुद को उल्लू मान उसे ही सच ठहरायें।
हरदम तुम ऐसे ही करना कोटि उपाय,
जिससे बीवी का चेहरा खिल-खिल जाय।’
फिर मैंने कुछ उपाय वधू को बतलाया,
जिन्हें गाँठ बाँधकर उसने अपनाया।
आप में से जो भी उन उपायों को अपनायेगा,
उसके जीवन में खुशियों का सावन लहरायेगा। ‘
दो-चार डाँट तुम पति की झूठे ही सह लेना।
कभी-कभी तुम सिसकी भर-भर यों ही रो लेना।
यह सब पति का मान बढ़ायेगा।
मातु-पिता सेवक सुत, पति तेरा कहलायेगा।
कभी-कभी तुम मैंके जाने का झूठे ही ले लेना नाम।
फिर पति से साँठ-गाँठ कर ‘ना’ कहलाकर पाना पतिव्रता का नाम।’
मिथ्या जीवन जीने के लोग हुए अब आदी हैं।
बिना वजह के वाद बनाते, लोग विवादी हैं।
ऐसे में हरदम तुम करना वही प्रदर्शन-
हर्षित हो जिससे ससुराली लोगों का मन।
सासू-माँ को भी समझाये बिना, समझ में आये-
बहुओं को बेटी-सा अपनायें।
समझो-सुलझो जीवन को खुशहाल बनाओ,
वरना छोटी-छोटी बातों में उलझ उलझ जीवन को उलझाओ।
मेरा तो दावा है-
जीवन एक छलावा है।
इसीलिए तो सबसे, मेरी यही अपील है,
जिन्दगी को सँवारने की दलील है-
नाटक की तरह ही सही, जिन्दगी को जिए जाइये।
टेन्शनभरी जिन्दगी को जैसे भी हो, खुशहाल बनाइये।
लेखक
श्री विनय शंकर दीक्षित
“आशु”
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