खुद पिसकर भी
खुद पिसकर भी दूजे को अपना रंग देती है,
गर्मी हर लेती है और ठंडक भर देती है ।
मेंहदी की नजरों में नहीं बड़ा या फिर छोटा,
सबको अपना लेती कोई खरा ना है खोटा ।
अपने रेशे-रेशे से ये सबको सुख देती है,
खुद पिसकर भी दूजे को अपना रंग देती है ।
कोई गरीब लगा ले गहना खुद बन जाती है,
पैसे वालों को भी ये सहना सिखलाती है ।
पीड़ा की मारी है और दर्दों की खेती है,
खुद पिसकर भी दूजे को अपना रंग देती है ।
सस्ती है ये इतनी कि हर जन ले आता है,
कोई हाथ रचाता कोई बाल रचाता है ।
चाहत की निशानी है सबकी चहेती है,
खुद पिसकर भी दूजे को अपना रंग देती है ।
जितना पीसो इसे रंग उतना ही चढ़ता है,
सोना तपकर चमके ज्यों इसका रंग बढ़ता है ।
आँसू और आहें न जाने क्यों पी लेती है,
खुद पिसकर भी दूजे को अपना रंग देती है ।
पिस-पिस कर मेंहदी का जैसे खून निकलता है,
हरयाली लुटती जाती है दर्द पिघलता है ।
आँसू और आहों की ये मुँहबोली बेटी है,
खुद पिसकर भी दूजे को अपना रंग देती है ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “