|| मासूम सा था चेहरा | MASOOM SA THA CHEHRA ||
मासूम सा था चेहरा
मासूम सा था चेहरा पर पिडलियाँ भरी थी,
माथे पे था पसीना और सिर पर टोकनी थी ।
गर्मी का था महीना उखड़ी हुई थी साँसें,
बोझा था सिर पे भारी वो हाँफती खड़ी थी ।
उफ ये तपन और सिर पे सब्जियों का बोझा,
कैसा है उसका जीवन ये डरते डरते सोचा ।
देकर सहारा उसकी टुकनी उतरवाई,
उसकी थकान ने मेरे एहसास को दबोचा ।
इतनी खरी दुपहरी का ध्यान मुझे आया,
हम देख तक न पाते ये सोच दिल घबराया ।
जल्दी से जा के भीतर लोटे में भरा था जल,
करने से बात पहले था जल उसे पिलाया ।
ऐसी कौन सी विपदा आई है तुझपे भारी,
इस खौफनाक गर्मी में फिरती मारी मारी ।
किस्मत का कौन सा है तुझ पर पड़ा हथौड़ा,
या के चली है कुदरत की बेवजह कटारी ।
बोली वो तीन बच्चे हैं सिर पे ना है वाली,
इस आग से भी ज्यादा है भूख की दुनाली ।
बच्चों के लिये जीना है,करना है मशक्कत,
किससे बतायें हम पेट भरा है या खाली ।
भर आँख मैंने देखा सूनी थी मांग उसकी,
बिंदी की जगह सिलवट थी परेशानियों की ।
चूड़ी की जगह पहने थी कड़े मेहनतों के,
अपनी व्यथा बताते भर आई आँख उसकी ।
दिल ने बड़ी इज्जत से था सिर उसे झुकाया,
कुछ हौसला भी उसका बढ़ बढ़ के फिर बढ़ाया ।
मुश्किल के दिन किसी पर रहते नहीं सदा हैं,
मल्हम दलीलें दे दे कर था उसे लगाया ।
जाने के बाद उसके बस सोचती रही मैं,
अन्तर्रात्मा के कोने को कौंचती रही मैं ।
ना बस में था कुछ उसके और ना ही बस में मेरे,
भारी जिगर लिये बस चूपचाप थी खड़ी मैं ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “