आग उगल रहा सूरज
आग उगल रहा सूरज,
बढ़ रही है तपन भी,
नौतपों के ताप के संग,
बरस रही अगन भी ।
हाय!पखेरू हैं पागल,
छाँव की तलाश में,
कहीं दिखे झरना,सोता,
उड़ रहे हैं आस में,
गाय बकरी को दिखे ना,
हरे वन के सपने भी ।
आग उगल रहा सूरज,
बढ़ रही है तपन भी ।
हिम जमी रहती थी जिस पर,
पिघल रहे हैं शिखर,
शनैः शनैः प्रकृति का,
ओज रहा है बिखर,
सागरों के तट के संग,
हो रहा भूमिरक्षण भी ।
आग उगल रहा सूरज,
बढ़ रही है तपन भी ।
हांफ रहे जीव सभी,
दिखे कोई ठौर ना,
खींचती अब तो सुवास,
आम की भी बौर ना,
लवण युक्त स्वेद बहे,
तोड़ रही थकन भी ।
आग उगल रहा सूरज,
बढ़ रही है तपन भी ।
क्षत विक्षित ओजोन छतरी,
कौन उसका दुख हरे,
चीर फाड़ सब करें पर,
कोई ना मल्हम धरे,
राष्ट्र छोटे बड़े इसका,
करते चीर हरण भी ।
आग उगल रहा सूरज,
बढ़ रही तपन भी ।
प्राण रक्षक पर्यावरण,
से लगायें सब लगन,
धुँए पर अंकुश लगाकर,
स्वच्छ अंबर का जतन,
स्वच्छ सरिताओं की रक्षा,
में रहें सब मगन भी ।
आग उगल रहा है सूरज,
बढ़ रही है तपन भी ।
लेखिका
श्रीमती प्रभा पांडेय जी
” पुरनम “
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